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( २३४) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । पाण्ड, शोथ. इत्पीडा, पार्श्वपीटा और शरीरमें भारीपन प्रादि अनेक प्रकारकी पीडामोको उत्पन्न करता है ॥ १२५-१३॥
हरितालम् ।
हरितालं तु तालं स्यादालं तालकमित्यपि । हरितालं द्विधा प्रोक्तं पत्राख्यं पिंडसंज्ञकम् ॥१२८॥ तयोरायं गुणैः श्रेष्ठं ततो हीनगुणं परम् । स्वर्णवर्ण गुरु स्निग्धं सपत्रं चाभ्रपत्रवत् ॥ १२९ ॥
पत्राख्यं तालकं विद्यागुणाढ्यं तद्रसायनम् । · निष्पत्रं पिंडसदृशं स्वल्पसत्त्वं तथा गुरु ॥ १३०॥ स्त्रीपुष्पहारकं स्वल्पगुणं तत्पिण्डतालकम् । हरितालं कटु स्निग्धं कषायोष्णं हरेद्विषम् । कंडुकुष्ठास्यरोगात्रकफपित्तकचत्रणान् ॥ १३१॥ हरति च हरितालं चारुतां देह जातां सृजति च बहुतापानंगसंकोचपीडाम् । वितरति कफवातौ कुष्ठरोगं विदध्यादिदमशितमशुदं मारितं चाप्यसम्यक् ॥ १३२ ॥
हरितान, ताल, पाल और तालक यह हरिताल के नाम हैं। हरिताल (पाख्य वर्की) और पिण्ड इन भेदोंले दो प्रकारकी होती है । इनमें वर्की हरताल गुणोंमें श्रेष्ठ होती है। और पिण्ड गुणों में हीन होती हैं। जो हरिवाल स्वर्णके वर्णवाली,भारी,चिकनी, अभ्रकके समान पत्रोंवाली होती है उसको पहरिताल कहते हैं। यह भनेक गुणों से युक्त और रसायन है।. पोले रहित पिण्डके समान पिण्डहरिवान होती है,यह अल्पसत्यभारी, खियोंके मासिक धर्मको रोकनेवानी पौर अल्पगुणवाली पिण्डहरिताल