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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (२२५) सौवर्ण राजतं ताम्रमायसं तच्चतुर्विधम् । शिलाजत्वद्रिजतु च शैलनिर्यास इत्यपि ॥ ८ ॥ गैरेयमश्मजं चापि गिरिजं शलधातुजम् । शिलाज कटुतिक्तोष्णं कटुपाकं रसायनम् ॥ ८ ॥ छेदि योगवहं हंति कफमेदोश्मशर्कराः। मूत्रकृच्छ्रे क्षयं श्वास वाताशीसि च पाण्डुताम् ८२॥ अपस्मारं तथोन्मादं शोथकुष्ठोदरक्रिमीन् । सौवर्ण तु जपापुष्पवर्ण भवति तद्रसात ॥ ८३ ॥ मधुरं कटु तिक्तं च शीतलं कटुपाकि च । राजतं पाण्डुरं शीतं कटुकं स्वादुपाकि च । तानं मयूरकण्ठाभ तीक्ष्णमुष्णं च जायते ॥ ८४ ।। लौहं जटायुपक्षाभं तितकं लवणं भवेत् । विपाके कटुकं शीतं सर्वश्रेषमुदाहृतम् ॥ ८५ ॥ ग्रीष्मऋतुमें सूर्यकी तीक्ष्ण किरणोंसे तपायमान, पर्वत धातुमके नियास के समान जिस उपधातुका स्राव करते हैं उसे शिलाजतु कहते हैं। यह शिलाजतु सौवर्ण,राजत, ताम्र और आयस भेदले चार प्रकारकी होती है। शिलाजतु,अद्रिज,शैत नियास,गैरेय, अश्मज,गिरिज और शैलधातुज वह शिलाजतुके नाम हैं। शिलाजित-कटु,तिक्त,उष्ण, कटुपाकी, रसायन, छेदी और योगवाही है। तथा कफ,मेद, पथरी, शर्करा, मूत्रकृच्छ, क्षय, श्वास, वात, पर्श, पांडु, पपस्मार, उन्माद, शोथ, कुष्ठ, उदररोग, कृमिरोग इन सबको दूर करती है । सुवर्णवाले पहाड़की शिलाजतु जपापुष्पके वनवाली,रतमें मधुर, कटु और तिक्त होती है तथा शीतल और कटुपाकी होती है । रजतवाली पाण्डुवर्णकी शीतल, कटु और स्वादुपाकी होती है। तायवाली शिनाजित-मोरके कण्ठके समान वर्णवाली, तीक्ष्ण
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