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(२२४) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.। - रीतिरप्युपधातुः स्पात्ताम्रस्य यसदस्य च ।। ७४ ।। पित्तलस्य गुणा ज्ञेयाः स्वयोनिसदृशा जनैः । संयोगजप्रभावेण तस्यान्येऽपि गुणाः स्मृताः॥७॥ रीतिकायुगलं रूक्ष तिक्तं च लवणं रसे । शोधनं पांडुरोगघ्नं कृमिघ्नं नातिलेखनम् ॥ ७६ ॥ पित्तल, आरकूट, पार- रीति,राजरीति, ब्रह्मरीति,कपिला और पिंगल यह पीतल के नाम हैं। पीतल तांबे और जशदके संयोगसे उत्पन्न होती है, इस लिये इसमें तांबे और जस्तकेले गुण होते हैं। परन्तु संयोगज प्रभावसे इसमें और भी गुण पाजाते हैं। जैसे यह रूक्ष. तिक्त, वणरसयुक्त, शोधन, पांडुरोगहर, कृमिघ्न तथा प्रायंत लेखनकर्ता है॥ ७३-७६.॥
सिंदूरम् । सिंदूरं रक्तरेणुश्च नागगर्भ च सीसकम् । सीसोपधातुः सिंदूरं गुणस्तरसीसवन्मतम् ॥ ७७ ॥ सिंदूरमुष्णवीसप कुष्ठकंडूविषापहम् ।
भनसंधानजननं व्रणशोधनरोपणम् ॥ ७८॥ सिंदूर,रक्तरेणु,नागगर्भ, सीतक और सीसोपधातु यह सिंदूरके नाम हैं। सिंदूर सीसेके समान गुणोंवाला है तथा उष्ण है । विसर्प, कुष्ठ, कंडू और विषको हरनेवाला है। कटे हुएके जोडनेवाला तथा व्रणोंको शोधन और रोपण करनेवाला है ॥ ७७ ॥ ७८ ॥
शिलाजत। निदाघे धर्मसंतप्ता धातुसारं धराधराः । निर्यासवत्प्रमुचंति तच्छिलाजतु कीर्तितम् ॥ ७९ ॥