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भा.टी.
वि.प्र. वास्तुमण्डलके विप्र ब्रह्माके स्थानमें उस पृथ्वीका पूजन करे ॥ १८१ ॥ जिसका सुन्दररूप जो दिव्यरूप और आभरणोंसे युक्त है जो
स्त्रीरूप है और प्रमदावेषको धारण कररही है और जो भली प्रकार मनोहर है ॥ १८२ ॥ महाव्याहृति है पूर्व जिसके ऐसे उस मन्त्रसे पृथ्वीका पूजन करे और धारय०-इस मन्त्रसे भली प्रकार प्रार्थना करके ॥ १८३ ॥ वास्तु सब देवतारूप है वास्तु देवतारूप परमेश्वर है फिर अपने अपने नाममन्त्रोंसे ध्यान करके पूजन करे ॥ १८४ ॥ प्रजाके ईश्वर चतुर्मुख देवका आवाहन करे फिर गन्धआदिसे उसका बारम्बार सुरूपां पृथिवीं दिव्यरूपाभरणसंयुताम् ॥ स्त्रीरूपां प्रमदावेषधारिणीं सुमनोहराम् ॥ १८२॥ महाव्याहृतिपूर्वेण पूजयेत्तां धरां पुनः । धारयेति च मन्त्रेण सम्प्रार्थ्य च पुनः पुनः ॥ १८३॥ सर्वदेवमयं वास्तु वास्तुदेवमयं परम् । ततः स्वनाममन्त्रेण ध्यात्वा तत्र च पूजयेत् ॥ १८४ ॥ ततश्चतुर्मुखं देवं प्रजेशं चाह्वयेत्ततः । गन्धादिभिश्च तं पूज्य प्रणम्य च पुनः पुनः॥१८५॥ वास्तुपुरुप नमस्तेऽस्तु भूमिशय्यारत प्रभो । मद्नेहे धनधान्यादिसमृद्धिं कुरु सर्वदा ॥ १८६ ॥ वाचयित्वा ततः स्वस्ति | कर्कस्थं परिगृह्य च । सूत्रमार्गेण तोयस्य धारां प्रादक्षिणेन च ॥ १८७ ॥ पातयेत्तेन मार्गेण सर्वबीजानि चैव हि । सर्वबीजे
जलव तन्मार्गेणापि संचरेत् ॥ १८८॥ इति वास्तुविधानन्तु कृत्वा तां नानमण्डपात् ॥ १८९॥ lity| पूजन और प्रणाम करके कहे ॥ १८५ ॥ हे वास्तुपुरुष ! हे भूमिशय्यामें रत ! हे प्रभो! आपको नमस्कार है मेरे घरमें धन धान्य आदिकी||
वृद्धिको सदैव करो ॥ १८६॥ फिर स्वस्तिवाचन कराकर और कर्क ( करवा ) को ग्रहण करके सूत्रके मार्गसे और प्रदक्षिण क्रमसे जलकी धारको ॥ १८७ ॥ यजमानसे गिरावे उसीमार्गसे सर्व बीजोंको गिरवावे और सर्व बीजके जलोंको भी उसी मार्गसे गिरवावे और यजमानभी उसी मार्गसे गमन करे ॥ १८८ ॥ इस प्रकार वास्तुविधानको गुणोंसे युक्त सूत्रधार उस शिलाको शिलामण्डपसे भली प्रकार लाकर
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