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एकपादको कृशराकी बलि दे ॥ १४५ ॥ अग्नि और पूर्वके मध्यमें वितानकको गन्धमाल्य दे नैत और पश्चिमके मध्यमें ज्वालास्य देिवता कहा है ॥ १४६ ॥ उसको दही अक्षतोंसे युक्त मोदकोंको दे, दिक्पालोंको बाल देकर फिर क्षेत्रपालको आगमोक्तमंत्र वा वेदोक्त | मंत्रसे बलि दे ॥ १४७ ॥ क्षेत्रपालकी बलिका मंत्र यह है कि, भगवान क्षेत्रपालको नमस्कार है और तेतीसकोटिदेवताओंके अधिपतिको और भारके जेताको प्रकाशमान त्रिनेत्रको अपने अंगमें किंकिणी ज्वालामुख भैरवको तुरु मुरुमुरुललषषषषषकेंकार दुरित दिङ्मुख आग्नेयपूर्वयोमध्ये गन्धमाल्यैर्वितानकम्।नेऋत्यपश्चिमान्तस्थी ज्वालास्यः पार्रकीर्तितः॥१४६॥ तस्मै दध्यक्षतयुतमोदकानि च दापयेत् । दिक्पालानां बलिं दत्त्वा क्षेत्रपालबलिं ततः।।१४७|आगमोक्तेन मन्त्रेण वेदमंत्रेण वै तथानिमो भगवते क्षेत्रपालाय त्रय स्त्रिंशत्कोटिदेवाधिदेवाय निर्जितभाराय भासुरित्रिनेत्राय स्वांगकिङ्किणिज्वालामुखभैरवरूपिणे तुरुमुरुमुरुललपपपपपकेङ्कादुरित दिङ्मुखमहाबाहो अद्यकर्तव्ये वास्तुकर्मणि अमुकं यजमानं पाहिपाहि आयुष्कर्ताक्षेमकर्ताभव अमुं पशुदीपसहितंमुण्डमापभक्त बलिं गृह्णगृह स्वाहा।।१४८॥इति बलि दत्त्वानिऋत्यां दिशिभूतेभ्यो सन्ध्याकाले विशेषतः।बलिं दद्याद्विधानेन मन्त्रविनक्तभुग्यमी। पुरोहितस्तथा याज्यं गुडोदनमथापि वा।।१४९॥कुल्माषेण तु सम्मिश्रेर्यावकापूपसंयुतैः। बहुपक्वान्नसंयुक्तैर्बालक्रीडनकैस्तथा।।१५०॥ रूप हे महाबाहो ! आज करने योग्य वास्तुकर्ममें अमुक नाम यजमानकी रक्षा करो, आयुका कर्ता कुशलका कर्ता और दीपक सहित इस पशुको और माषभक्त बलिको ग्रहण करो स्वाहा. इस मन्त्रसे क्षेत्रपालको बलि देकर ॥ १४८ ॥ सन्ध्याके समयमें नैर्ऋत्य दिशामें भृतोंको शास्त्रोक्त विधानसे बलिको मन्त्रका ज्ञाता दे और रात्रि में भोजन करें संयमसे रहे. पुरोहित यजमान गुडोदन ।। १४९ ॥ कुल्माष (रनास जिसमें मिलाहो) ऐसे जो अपूप और बहुतसे पकान जिनमें हों और बालकोंको खिलोने । १५० ॥