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वि.प्र. ॥ ३४ ॥
( २ ॥ ) पद दोनों भागों में स्थित होते हैं और बीस दो दो पदके वास्तुमें कहे है ॥ १० ॥ जीर्णोद्धार में उद्यान में, गृहके प्रवेशमें, नवीन प्रासाद, प्रासादके परिवर्तन (बनाना) में ॥ ११ ॥ द्वारके बनवाने और प्रासाद गृहमं बुद्धिमान मनुष्य पहिलेही वास्तुशान्तिको करे ||१२|| वास्तुमण्डल के कोणाम ईशानदिशा आदिके प्रदक्षिण क्रमसे शंकुओंका रोपण ( रखना श्रेष्ठ होता है ॥ १३ ॥ 'नाग ! भूतल के विषे प्रवेश करो और समस्त लोकपाल जो आयु और बलके करनेहारे हैं वे सदैव इस ग्रह विषे टिको' इस मंत्रको पढकर वास्तुके की गमें शंकुओंको पोडशकोणगाः सार्द्धपदाश्चाथोभयस्थिताः । विंशतिर्द्विपदाश्चैव चतुष्पष्टिपदे स्मृताः ॥ १० ॥ जीर्णोद्धारे तथोद्यान तथा गृह निवेशने । नवप्रासादभवने प्रासादपरिवर्तने ॥ ११ ॥ द्वाराभिवर्तने तद्वत्प्रासादेषु गृहेषु च । वास्तूपशमनं कुर्यात्पूर्वमेव विच क्षणः ॥ १२ ॥ वास्तुमण्डलकोणेषु ईशानादिक्रमेण च ॥ शंकूनां रोपणं शस्तं प्रादक्षिण्येन मार्गतः ॥ १३ ॥ विशन्तु भूतले नागा लोकपालाश्च सर्वशः । अस्मिन्गृहेऽवतिष्ठन्तु आयुर्वलकराः सदा ॥ १४ ॥ प्रासादारामवापीषु कूपोद्यानेषु चैव हि । तन्नाम पूर्विका रौप्या कोणे शङ्खचतुष्टयम् ॥ १५ ॥ अग्निभ्योऽप्यथ सप्पेभ्यो ये चान्यं तत्समाश्रिताः । तेभ्यो बलिं प्रयच्छामि पुण्य मोदनमुत्तमम् ॥ १६ ॥ एकाशीतिपदं कुर्य्याद्रेखाभिः कनकेन च । पश्चात्पिष्टेन चालिख्य सूत्रेणालोड्य सर्वतः ॥ ३७ ॥ दश पूर्वायता रेखा दश चैवोत्तरायताः । सर्वा वास्तुविभागेषु विज्ञेया नवका नव ॥ १८ ॥
रक्खे ॥ १४ ॥ प्रासाद आराम वापी कूप उद्यान में नामोच्चारणपूर्वक कोणोंमें चार शंकुओका स्थापन करे || १५ || अनि सर्प और जो अन्य दिशामें देवता स्थित हैं उनके लिये पवित्र और उत्तम ओदनकी बलिको देता हूं ॥ १६ ॥ सुवर्णकी रेखाओंसे वास्तुके विषे ( ८१ ) इक्यासी पद करे फिर सूत्रको चारों तरफ रखकर चूनसे आलेखन करें ॥ १७ ॥ दशरेखा पूर्वको लम्बी और दशरेखा उत्तरको लंबी करें संपूर्ण वास्तु
ता. टी.
अ. ए
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