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________________ वि. प्र. ॥ ३२ ॥ पतितवृक्षसे शुभ लग्न में शंकु (खूँटी ) आदिको ग्रहण करके ॥ ४५ ॥ उस शंकुके चारोंतरफ चार हाथभर वा उसके आधे प्रमाणसे भूमिको ग्रहण करके छेदन किये हुए उन पूर्वोक्त वृक्षोंको लेजाकर तबतक रखदे जवनक शंकुकी प्रतिष्ठाकी समानता हो ॥ ४६ ॥ ईशकोण ( ईशान ) की नन्दन्ती ( शिला ) को शुक्ला अग्निकोणकी सुभगा और नैर्ऋतकोणकी सुमंगली और वायुकोणकी भद्रंकरी नाम कहते हैं ॥ ४७ ॥ वृष अश्व पुरुष नाग इनके समान पैरोंसे क्रमसे अंकित जो नन्दन्ती आदि शिला हैं उनका ऐसियोंका ग्रहण करना कहा है जो अखण्डित हों करप्रमाणं परतश्चतस्रस्तदर्द्धमानेन ततोऽनुगृह्य । नीत्वा न्यसेत्तानि गृहे च तावद्यावत्प्रतिष्ठानसमश्च शङ्कोः ॥ ४६ ॥ नन्दन्ति शुक्का कथितकोणेताशनाख्ये सुभगेति चान्या । सुमङ्गली नैर्ऋतिभागसंस्था भद्रङ्करी मारुतकोणयाता ॥ ४७ ॥ वृषाव नागपदाङ्कितानां नन्दादिकानां क्रमशश्शिलानाम् । अखंडितानां सुदृढीकृतानां सुलक्षणानां ग्रहणं निरुक्तम् ॥ ४८ ॥ कूर्मश्च शेषश्च जनार्दनः श्रीध्रुवश्च मध्ये भवनस्य संस्थाः । निवेशनीयाः क्रमशः शिलानां प्रमाणमेतन्मुनिभिः प्रदिष्टम् ॥ ४९ ॥ शिलाप्रमाणं क्रमशः प्रदिष्टं वर्णानुपूर्व्येण तथाङ्गुलानाम् । अथैकविंशं घनविश्वनन्दाविस्तारके व्यासमितं तदुर्धम् ॥ ५० ॥ तदर्धमानं त्वथ पिंडिका स्यादूर्ध्वाधिका न्यूनतरा न कार्या । प्रमाणहीना सुतनाशकारिणी व्यङ्गाव्ययं भ्रष्टविवर्णदेहा ॥ ५१ ॥ मली प्रकार दृढ हों और जो शुभ लक्षणकी हों ॥ ४८ ॥ उन शिलाओंके मध्यमें क्रमसे कूर्म्म ( कच्छप ) शेष जनार्दन और श्री ध्रुव इन | चारोंके भवनके मध्य में स्थितिके लिये स्थापन करे यह प्रमाण मुनियोंने कहा है ॥ ४९ ॥ शिलाओंका प्रमाण वर्णोंके क्रमसे यह कहा है कि, इक्कीस २१ घन [ १७ ] तेरह १३ नन्द [९] इतने अंगुलोंका विस्तार वर्णोंके क्रमसे जानना और इनसे आधा व्यास होता है ॥ ५० ॥ उससे आधा प्रमाण पिण्डिकाका होता है वह ऊपरको अधिक बनानी अत्यन्त न्यून न बनानी और प्रमाणसे हीन होय तो पुत्रके नाशको भा. टी. अ. ४ ॥ ३२ ॥
SR No.034186
Book TitleVishvakarmaprakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages204
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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