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________________ वि. प्र. . . 1॥२५॥ चंद्रकृतभाषाविवृतिसहिते वास्तुशास्त्रे तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥ उत्तम मध्यम निदिनभेदसे तीन प्रकारके गृह चौदह १४ प्रकारके कहे हैं, उनके संक्षेपसे प्रमाणको कहताहूं ॥१॥ वह गृह दो प्रकारका कहा है. शरीर भित्र २ प्रकारका होता है. गृह नामका शरीर होता है. और शयनके चक्रमें शय्याको गृह कहते हैं ॥२॥ सुखका अभिलाषी मनुष्य शय्याका प्रमाण अपने देहके प्रमाण करे. शय्या ८१ इक्यासी अंगुलकी वा नब्बे अंगुलके प्रमाणकी होती है ॥ ३॥ उसके आधे प्रमाणसे उसका विस्तार होता है और उसके पादुका (पावे) उद्यतां । चतुर्दशविधाः प्रोक्ता गृहाश्चोत्तममध्यमाः। निन्दिताश्च प्रमाणञ्च कथयामि समासतः ॥ १॥ गृहं तद्विविधं प्रोक्तं शरीरं तु पृथग्विधम् । शरीरन्तु गृहन्नामशय्याशयनचक्रके ॥२॥ शय्यामानं स्वदेहेन समें कार्य सुखेप्सुना । एकाशीत्यंगुला शय्या नवत्यंगुलसम्मिता ॥३॥ तदद्देन च विस्तीर्णा पादुकावुद्यतांगुलौ । आसनं तु प्रकर्तव्यं शय्याविस्तारमानकम् ॥ ४ ॥ विस्तारं पादहीनं तु तद्विस्तारं प्रकल्पयेत् । उपानही प्रकर्तव्यो स्वपादप्रमितौ तथा ॥५॥ पादुकेऽपि यथा कार्ये अन्यथा दुःखशो कदौ । अष्टांगुन मानेन शय्यामानं प्रकल्पयेत् ॥ ६ ॥ अथवा ह्यपरा प्रोक्ता नृपाणां काम्यमिच्छताम् ॥ ७ ॥ गुल होते हैं अर्थात आधे अंगुल ऊँचे होते हैं. शय्याके विस्तारके प्रमाणकाही आसन बनवाना ॥ ४ ॥ उसके विस्तारसे पाद कम उसके विस्तारको अर्थात् चौडाईको करे. अपने चरणोंके समान उपानह बनवावे ॥५॥ पादुकाभी चरणोंके समान ही बनवावे अन्यथा बनवावे तो दुःख और शोकको देते हैं. आठ अंगुलके मानसे शय्याका प्रमाण बनवावे ॥६॥ अथवा कामकी इच्छावाले राजाओंकी अन्यभी १ पादुके न यथा इति पाठो दृश्यते ।
SR No.034186
Book TitleVishvakarmaprakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages204
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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