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________________ वि.प्र. ॥ २५॥ अ३ चार नक्षत्र अप्रपाद और चार नक्षत्र पश्चिम पादमें, तीन नक्षत्र पीठ पर, चार नक्षत्र दाहिनी कुक्षिमें, चार नक्षत्र पूंछपर और चार नक्षत्र वामकुक्षिमें रक्खे ।। १३ ।। तीन नक्षत्र मुखपर होते हैं. इस प्रकार अट्ठाईस तारा होते हैं. शिरका तारा अग्निका दाह करता है. अग्रपादमें गृहसे उदास (निकसना) ॥१२शा पश्चिम पादके नक्षत्रों में स्थिरता, पीठके नक्षत्रों में धन का आगम,दक्षिण कुक्षिके नक्षत्रमें लाभ,पुच्छके नक्षत्रों में स्वामीका नाश होता है ॥ १५ ।। वाम कुक्षिके नक्षत्रमें दरिद्रता, मुखके नक्षत्रों में निरंतर पीडा होती है, पुनर्वसु नक्षत्रमें राजा आदिके सूतिकागृहको चतुष्कमग्रपादे स्यात्पुनश्चत्वारि पश्चिमे । पृष्ठे च त्रीणि ऋक्षाणि दक्षकुक्षी चतुष्ककम् । पुच्छे चत्वारि ऋक्षाणि कुक्षौ चत्वारि वामतः ॥ १३ ॥ मुखे भत्रयमेव स्युरष्टाविंशतितारकाः। शिरस्ताराग्निदाहाय गृहोद्वासोग्रपादयोः॥ १४ ॥ स्थैर्य स्यात्पश्चिमे पादे पृष्ठे चैवं धनागमः । कुक्षौ स्यादक्षिणे लाभः पुच्छे च स्वामिनाशनम् ॥ १५ ॥ वामकुक्षौ च दारिद्यं मुखे पीडा निरन्त रम् । पुनर्वसौ नृपादीनां कर्तव्यं मृतिकागृहम् ॥ १६ ॥ श्रवणाभिजितोमध्ये प्रवेशं तत्र कारयेत् । चरलग्ने चरांशे च सर्वथा परिवर्जयेत् ॥ १७ ॥ जन्मभाञ्चोपचयभे लग्ने वर्गे तथैव च । प्रारम्भणं प्रकुर्वीत नैधन परिवर्जयेत् ॥ १८ ॥ पापैखिपठायगतैः सौम्यैः केन्द्र त्रिकोणगैः । निर्माण कारयेद्धीमानष्टमस्थैः खलैर्मृतिः ॥ १९॥ बनवावे ।। १६ ॥ श्रवण और अभिजित नक्षत्रमें सूतिकागृहमें प्रवेश करवावे. चर लग्न और चरलग्नके नवांशको सर्वथा वर्जद ॥ १७ ॥ जन्मकी के राशिसे उपचय (वृद्धि ) का लग्न और उपचयको राशिमें प्रारंभ करे. जन्मलग्नसे आठवें लग्नको वर्जदे ॥ १८ ॥ पापग्रह (३।६।११) में सौम्य ग्रह केन्द्र (१।।७।१०) और त्रिकोण (९५) में हों ऐसे लग्नमें बुद्धिमान मनुष्य गृहको बनवावे और अष्टम लग्नमें पापग्रह होय तो ॥२५
SR No.034186
Book TitleVishvakarmaprakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages204
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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