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जो समवृत्त ( गोल ) हो उसको वृत्त नामका स्तम्भ पण्डितोंने कहा है ॥ १६७ ।। स्तम्भके नौ प्रकार बांटकर उद्वहन घटको बनवाने अर्थात स्तम्भके पाससे काष्ठोंको लगावै और पद्म उत्तरोष्ठकोभी भागस ऊन भागमे बनवाने स्तम्भके नीचेके काष्ठ को पद्म उत्तरोष्ठ कहत है ॥ १६८॥ भारकी तुलाके ऊपर जिनकी तुला ऊपर हो उनकी स्तम्भके समान अधिकता होती है और वे एक एक पाद ऊन होती है ।। १६९॥ निषि
से रहित जो अलिंद उसके समान जो घर है वह सर्वतोभद्र अर्थात् सब प्रकारसे मांगलीक होता है, राजा और देवताओंके समूहोंका जो विभज्य नवधा स्तम्भं कुर्यादुदहनं घटम् । पद्मं च सोत्तरोष्टं च कुर्याद्भावोनभागतः ॥ १६८ ॥ स्तम्भसम बाहुल्यं भारतु लानामुपयुपरि यासाम् । भवति तुलाय तुलानामूनं पादेन पादेन ॥ १६९ ।। अप्रितिषिद्धालिन्दं समन्ततो वास्तु सर्वतोभद्रम् । नृपविबुधसमूहानां कार्य द्वारेश्चतुर्भिरपि ॥ १७० ॥ द्विशालानि गृहाणि ॥ याम्यशाला न्यसेदादौ द्वितीया पश्चिमे ततः। तृतीया चोत्तरे स्थाप्या चतुर्थी पूर्वपश्चिमा ॥ १७१ ॥ दक्षिणे दुर्मुखं कृत्वा पूर्वे च खरसंज्ञकम् । तद्वाताख्य भवद्हं वात रोगप्रदं स्मृतम् ॥ १७२ ॥ दक्षिण दुर्मुखं गेहं पश्चिमे धान्यसंज्ञकम् । सिद्धार्थाख्यं द्विशालं च सर्वसिद्धिकरं नृणाम् ॥१७॥ पश्चिमे धान्यनामानमुत्तरे जयसंज्ञकम् । मयसूर्य द्विशालं तन्मृत्युदं नाशदं स्मृतम् ॥ १७४॥ घर है वह चार दरवाजोंका बनवाना ।। १७० ॥ अब दो शाला आदिके गृहांको कहते हैं-पहिली शाला दक्षिणमें बनवानी फिर इसरी पश्चि ममें, तीसरी उत्तरमें और चौथी पूर्व पश्चिमम मध्यमें बनवानी ॥ १७१।। जिस घरमें दक्षिण दिशामें दुर्मुखका चिह्न हो और पूर्वमें खरका चिह्न ५ हो वह घर वातनामका होता है, वह वातरोगका प्रदाता शास्त्र में कहा है ॥१७२।। ।। जो घर दक्षिणमें दर्मख हो और पश्चिममें धान्यसंज्ञक हो| वह दो शालाका घर सिद्धार्थ नामका होता है और वह मनुप्योंकी सब सिद्धियोंको करता है ॥१७३ ॥ जो पश्चिममें धान्य नामका हो और