________________
उत्तरमें जयसंज्ञक हो और जिसमें दो शाला हों उसे मयसूर्य कहते हैं. वह मृत्यु और नाशका दाता होता है ॥ १७४ ॥ जो पूर्वमें खरनामका हो और उत्तरमें धान्यसंज्ञक हो और जिसमें दो शाला हों वह दण्डनामका होता है. वह दण्डको बारम्बार देता है ॥ १७५ ॥ जो दक्षिणमें |
दुर्मुख हो और उत्तरमें जयसंज्ञक हो और जिसमें दो शाला हों वह वातनामका होता है, उसमें बंधु और धनका नाश होता है ॥ १७६ ॥ *जो पूर्वदिशामें खरनामका हो और पश्चिममें धान्यसंज्ञक हो और जिसमें दो शाला हो उस गृहको चुल्की कहते हैं वह पशुओंकी
पूर्वे तु खरनामानमुत्तरे धान्यसंज्ञकम् । दण्डाख्यं तद्विशालं स्यादण्डं कुर्य्यात्पुनःपुनः ॥ १७९ ॥ दुर्मुखं दक्षिणे कुर्यादुत्तरे । जयसंज्ञकम् । वाताख्यं तद्विशालं तु बन्धुनाशं धनक्षयम् ॥ १७६॥ खरं च पूर्वदिग्भागे पश्चिमे धान्यसंज्ञकम् । गृहं चुल्की द्विशालं तत्पशुवृद्धिधनप्रदम् ॥ १७७ ॥ विपक्षं दक्षिणे भागे पश्चिमे क्रूरसंज्ञकम् । शोभनाख्यं द्विशालं तद्धनधान्यकरं परम्
॥ १७८ ॥ विजयं दक्षिणे भागे विजयं चैव पश्चिमे । द्विशालं चैव कुम्भाख्य पुत्रदारादिसंयुतम् ॥ १७९ ॥धनं च पूर्वदिग्भागे | धान्यञ्चैव तु पश्चिमे । नन्दाख्यं तद्विशालं च धनदं शोभनं स्मृतम् ॥ १८०॥ विजयं सर्वदिग्भागे द्विशालाख्यं तदेव हि ।
शङ्काख्यं नाम तद् शुभदं च नृणां भवेत् ॥ १८१॥
वृद्धि और धनको देता है। १७७ ॥ जो घर दक्षिण भागमें विपक्षनामका हो और पश्चिममें करसंज्ञक हो और जिसमें दो शाला हों वह घर अशोभननामका होता है वह धन और धान्यको देता है ॥ १७८ ॥ जो दक्षिणभागमें और पश्चिम भागमें विजयनामका हो और जिसमें दो
शाला हो उस घरको कुंभ कहते हैं वह पुत्र और स्त्री आदिसे युक्त रहता है॥ १७९ ॥ जो पूर्वदिशामें धननामका हो और पश्चिममें धान्यनामका हा और जिसमें दो शाला हों वह घर नंदनामका होता है वह धनको देता है और शोभननामका होता है ॥ १८० ॥ जो सब दिशाओंमें