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है भाग जिसका ऐसेही उनकी लम्बाई होनी चाहिये ॥ १४६ ॥ और क्षत्रिय आदि तीनों वर्णोंका घर पूर्वोक्तही समझना, राजा और सेनापतियोंके घरका जो मध्यभाग हो उतने प्रमाणका कोश घर और रतिघर होते हैं और सेनापतिके घरके मध्यका जो प्रमाण हो ॥ १४७ ॥ ॐ ॥ १४८ ॥ वह चारों वर्णोंके राजपुरुषोंका घर कहा है और मातापिताके घरका जो मध्य प्रमाण हो उतना पारशव आदिके घरका प्रमाण होता है ॥ १४९ ॥ ब्राह्मणके घरका प्रमाण शुद्रके घरके संग जो होय वह घर मूर्धाभिषिक्त और मृतकण्टकका होता है ॥ १५० ॥ इनके पीछे त्रयाणां क्षत्रियादीनामालयं पूर्वचोदितम् । नृपसेनापतेर्गेहस्यान्तरं यद्भवेदिह ॥ १४७ ॥ तत्कोशगेहं भवति रतिगेहं तथैव च । सेनापतिगृहाणां च अन्तरे यत्प्रमाणकम् ॥ १४८ ॥ चातुर्वर्ण्यस्य यहं तद्राजपुरुषं मतम् । अथ पारशवादीनां मातापित्रो दन्तरम् ॥ १४९ ॥ ब्राह्मणस्य च यन्मानं शूद्रेण सह यद्भवेत् । मृर्द्धावसिक्तत्रासु तथैव मृतकण्टकः ॥ १५० ॥ पश्चाच्छ्रमि जनानां च यथेष्टं कारयेद्गृहम् । शतहस्तोच्छ्रितं कार्यं चतुःशाल गृहं भवेत् ॥ १५१ ॥ प्रमितं त्वेकशालं तु शुभदं तत्प्रकी र्तितम् । सेनापतिनृपादीनां सप्तत्या सहिते कृते ॥ १५२ ॥ व्यासे चतुर्दशते शालामानं विनिर्दिशेत् । पञ्चत्रिंशद्वतेऽन्यत्रा लिन्दमानं भवेच्च तत् ॥ १५३ ॥
श्रमीजन (नृत्य आदि ) के घरको अपनी इच्छा के अनुसार बनवावे जिस घर में चार शाला हों उसकी ऊँचाई सौ १०० हाथकी बनवावे ॥ १५१ ॥ जो एक शालाका हो वह प्रमितही सुखदायी कहा है, सेनापति और राजाके घरके प्रमाणके व्यास में सत्तर ७० मिलाकर ॥ १५२ ॥ १४ का भाग देनेपर भागांके प्रमाणसे शालामान कहा है, और ३५ का भाग देनेपर वही अलिंदका मान होता है ॥ १५३ ॥