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पूर्वभाग में ब्राह्मण, उत्तर में क्षत्रिय ॥ १३२ ॥ दक्षिण में वैश्य और पश्चिम में शूद्र और अग्निकोण आदिके क्रमसे अन्त्यज आदि वर्णसंकरोंका वास होता है ।। १३३ ॥ जातिसे भ्रष्ट और चर ये विदिशाओंमें होते हैं, ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र ये पूर्व आदि दिशाओं में कहे हैं ॥ १३४ ॥ हाथोंके विस्तार से १०८ हाथका राजाओंका मंदिर होता है वही प्रधान बनवाना आय आठों दिशाओं के मंदिर इस क्रमसे बन वैश्यानां दक्षिणे भागे पश्चिमे शुद्रकास्तथा । आग्रेयादिकमेणैव अन्त्यजा वर्णसङ्कराः ॥ १३३ ॥ जातिभ्रष्टाश्च चौराश्व विदिक्याः शोभनाः स्मृताः । ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राः प्रागादिषु स्मृताः ॥ १३४ ॥ अष्टोत्तरशतं हस्तविस्तारान्नृपमन्दिरम् । कार्य प्रधानमन्यानि तथाष्टाष्टौ च तानि तु ॥ १३५ ॥ विस्तारं पादसंयुक्तं तेषां दैर्घ्य प्रकल्पयेत् । एवं नृपाणां पञ्चैव गृहाणि शुभदानि च ॥ १३६ ॥ पङ्गिः पङ्किविहीनाश्च चतुःषष्टिमितस्य च । पञ्चैव तस्य विस्तारं देर्घ्यं पड्भागसंयुतम् ॥१३७॥ षष्टिश्चतुर्विहीनानि वेश्मानि सचिवस्य च । पञ्चषष्ठांशसंयुक्तं दैर्घ्यं तस्यार्द्धमेव च ॥ १३८ ॥ नृपाणां महिषीणाञ्च प्रशस्तं पञ्च चैव हि । पह्निः पश्विः वर्ज्यानि अशीत्याश्च तथैव च ॥ १३९ ॥
| वाने ।। १२५ ।। इनके विस्तारके पाद से युक्त लम्बाईकी कल्पना करें इस प्रकार राजाओंके गृह पांचही शुभदायी होते हैं ॥ १३६ ॥ और चौसठ ६४ हाथ के घर में छठे २ भाग से हीन वे पांच गृह होते हैं उनका विस्तार और लम्बाई छः भागसे युक्त होती है ॥ १३७ ॥ और चौसठ हाथसे न्यून मंत्रियोंके पांच घर होते हैं और छठे ६ भागसे युक्त अथवा विस्तारसे आधी उनकी लम्बाई होती है ।। १३८ ।। राजाकी रानि