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विप्र.
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एकशालायुक्त गृहमें आय व्यय आदिका विचार करना और दो शालासे युक्तम नहीं करना, क्योंकि निर्गम और अलिंद आदि जो गृहोंकी चारों दिशाओं में हैं वे गृहों के चारोदिशाआम जो होते हैं वे सब दो शाला आर्दिके घर में नहीं मानने और न वास्तुशाला आदिका विचार करना ॥ १२५ ॥ ब्राह्मणों का गृह चार शालाओं का, क्षत्रियोंका तीन शालाओं का, वैश्यांका दो' शालाओंका और शूद्रोंका एक शालाका होता है ॥ १२६ ॥ और सब वर्णोंका एक एक शालाका घर श्रेष्ठ कहा है १२२|३|४| शाला के || १२७|| गृहमें जिस प्रकार अलिंद आदि बनवावे उसी प्रका ब्राह्मणानां चतुःशाल क्षत्रियाणां विशालकम् । द्विशालं स्यात्तु वैश्यानां शूद्राणामेकशालकम् ॥ १२६ ॥ सर्वेषामेव वर्णाना मेकशाल प्रशस्यते । एकशाले विशाल वा त्रिशाल तुर्यशालकम् ॥ १२७ ॥ यथालिङ्गं गृहं कुर्यात्तादृकशाला प्रशस्यते । शालादिभिर्न कर्त्तव्यं न कुर्याद्धनिम्नकम् ॥ १२८ ॥ समां शालां ततः कुर्यात्समं प्राकारमेव च । कुलीरवृश्चिकौ मीन उत्तरद्वार संस्थिताः ॥ १२९ ॥ मेपसिंह धनुर्द्वाराः पूर्वद्वारेषु संस्थिताः । वृषभं मकरं कन्या याम्यद्वारे समाश्रिताः ॥ १३० ॥ तुला कुम्भौ च. मिथुनं पश्चिमद्वारमाश्रिताः । ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्चैव यथाक्रमम् ॥ १३१ ॥ यद्दिशाराशयः प्रोक्तास्तस्मिन् शाला प्रशस्यते । अथवा पूर्वभागे तु ब्राह्मणा उत्तरे नृपाः ॥ १३२ ॥
रकी शाला श्रेष्ट होती है और केवल शाला आदि युक्त गृहको और कहीं ऊँच और कहीं नीचे गृहको न बनवावे ॥ १२८ ॥ तिससे समान | शालाको और समान ( बराबर ) परकोटेको बनवावे, कर्क वृश्चिक मीन ये उत्तर के द्वारमें स्थित होते हैं ॥ १२९ ॥ मेष सिंह धन ये पूर्वके द्वारमें स्थित होते हैं, वृष मकर कन्या ये दक्षिणके द्वारमें स्थित होते हैं ॥ १३० ॥ तुला कुंभ मिथुन ये पश्चिमके द्वारमें स्थित होते हैं और इसी क्रमसे ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्रोंका वास होता है ॥ १३१ ॥ जिस दिशाकी राशि कही है उसी दिशामें शाला श्रेष्ठ होती है। अथवा
भा. टी.
अ. २
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