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(पूर्वाफा०) रोहिणी ॥४८॥ इनमें स्तंभकी ऊंचाई आदिको करे और अन्य नक्षत्र आदिको वर्ज दे. गृहके विस्तारसे (चौडाई) गणित देय (लम्बाई )को आठसे विभक्त करे (भागदे) ॥४९॥ जो शेष बचे वे आय ध्वज आदि होती हैं, उनके ये आठ भेद हैं-ध्वज धूम्र सिंह श्वान गौ गर्दभ हाथी काग ये आठ प्रकारकी ध्वजा आदि होते हैं ॥ ५० ॥ इन आय ध्वजा आदिकोंकी स्थिति होती है अपने स्थानसे पांचवें स्थानमें महान वर होता है ॥५१॥ विषम आय (विस्तार ) शुभ कहाहै और सम आय शोक और दुःखका दाता होता है. अपने स्थानके ग्रह बलिष्ठ होते। स्तम्भोच्छायादि कर्तव्यमन्यत्र परिवर्जयेत् । विस्तारेण हतं देध्ये विभजेदष्टभिस्ततः ॥ ४९ ॥ यच्छेप संभवेदायो वजाद्यास्ते स्युरष्टधा । ध्वजो धूम्रो हरिः श्वा गौः खरेभी वायसोऽटमः॥५०॥ पूर्वादिदिक्षु चाप्टानां धजादीनामपि स्थितिः । स्वस्थानात् पञ्चमे स्थाने वैरत्वञ्च महद्भवेत् ॥ २१॥ विषमायः शुभः प्रोक्तः समायः शोकदुःखदः । स्वस्थानगा बलिटाः स्युन चान्य स्थानगाः शुभाः ॥५२॥ वजः सिंहे तौ च गजे ह्येते गवि शुभप्रदाः । वृपो न पूजितो ह्या धजः सर्वत्र पूजितः ॥ ५३॥ वृपसिंहगजाश्चैव पुटकपटकोटयोः। द्विपः पुनः प्रयोक्तव्यो वापीकूपसरस्तु च ॥५४ ॥ मृगेन्द्रमासने दद्याच्छयनेषु गजं पुनः । वृष भोजनपात्रषु च्छवादिषु पुनर्ध्वजम् ॥ ५५ ॥ अग्निवेश्मसु सर्वेषु गृहे वस्त्रो (स्तू) पजीविनाम् । धूम्र नियोजयेत्केचि च्छ्वान म्लेच्छादिजातिषु ॥५६॥ हैं और अन्य स्थानके नहीं होते ।। ५२ ॥ ध्वज सिंह और हाथी गौ ये शुभदायी होते हैं. वृष (बैल) पूजित नहीं होता और ध्वजा सर्वत्र छ पृजित होती है ॥ ५३ ॥ वृष सिंह गज ये पुट कर्पट और कोटमें और हाथी वापी कृप और तडागमें करना योग्य है॥ ५४॥ सिंहकी ध्वजा
आसनमें हाथीकी ध्वजा शयनमें भोजमके पात्रों में वृक्षकी और छत्र आदिमें ध्वजाको बनवावे ॥ ५५ ॥ अग्नि के सब स्थानोंमें और वनोंमे