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वि.प्र., 11 99 11
स्वम के अधिपति जो आप हैं उनको नमस्कार है ॥ ११ ॥ हे भगवन् ! हे देवदेवेश ! हे शूलधारी ! हे वृषवाहन ! सोतेहुए मुझ सदैव वांछित फलको कहो ।। १२ ।। एक वस्त्र धारण किये कुशाके आसन पर सावधान मनसे सोताहुआ राजा रात्रिके अन्त में शुभ वा अशुभ स्वप्नको देखता है || १३ || चौकोर समान शुद्ध भूमिको यत्न से इकसार करके उसमें वृत्तके मध्यकी दिशामें दिशाका साधन करें ॥ १४ ॥ पूर्वकी तरफ भूमिको निचान होय तो लक्ष्मी, अग्निकोणमें होय तो शोक, दक्षिणदिशामें होय तो मरण, नैर्ऋत दिशामें होय तो महाभय ।। १५ ।। पश्चि भगवन्देवदेवेश शूलभृद् वृपवाहन । इष्टानि मे समाचक्ष्व स्वप्ने सुप्तस्य शाश्वतम् ॥ १२ ॥ एकवस्त्रः कुशास्तीर्णे सुप्तः प्रयत मानसः । निशान्ते पश्यति स्वप्नं शुभं वा यदि वाऽशुभम् ॥ १३ ॥ चतुरखां समां शुद्धां भूमिं कृत्वा प्रयत्नतः । तस्मिन् दिक्साधनं कार्य वृत्तमध्यगते दिशि ॥ १४ ॥ पूर्वप्लवे भवेलक्ष्मीराग्नेय्यां शोकमादिशेत् । याम्यां याति यमद्वारं नैर्ऋच महाभयम् || १५ || पश्चिमे कलहं कुर्याद्वायव्यां मृत्युमादिशेत् । उत्तरे वंशवृद्धिः स्यादीशाने रत्नसञ्चयः ॥ १६ ॥ दिङ्मूढे कुलनाशः स्याद्व दारिद्र्यमादिशेत् ॥ अथ समयशुद्धिः ॥ चैत्रे व्याधिमवाप्नोति यो नवं कारयेद् गृहम् । वैशाखे धनरत्नानि ज्येष्ठे मृत्युस्तथैव च ॥ १७ ॥
ममें होय तो कलह, वायव्य दिशामें होय तो मृत्युको, उत्तरको होय तो वंशकी वृद्धि, ईशानमें होय तो रत्नोंके संचयको कहे ॥ १६ ॥ जिस भूमिकी निचाई दिङ्मुद हो अर्थात् किसी दिशाको न होय तो कुलका नाश और जो टेढी होय तो दरिद्रताको कहे | अब सम यकी शुद्धिका वर्णन करते हैं जो मनुष्य चैत्रमें नवीन गृहको बनवाता है वह व्याधिको प्राप्त होता है, वैशाखमें धन और रत्नों को
भा. टी.
अ. २
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