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सावधान हो शुद्ध और सूक्ष्म रेशमके वस्त्रोंको धारण किये जितेन्द्रियहुआ पुरुष पूर्वाभिमुख होकर 'रुद्र रुद्र' इस प्रकार कहकर हृदयमें रुद्रवि धिको जपे ॥ ५ ॥ और छः ऋचा हैं जिसमें ऐसे रुद्रजपको सावधान होकर करावे ॥ ६ ॥ दूसरा प्रकार यह है कि, दुकूल मोती इनको धारण करके मंत्री ज्योतिषी पुरोहित सहित राजा अपने देवताके मन्दिर में प्रवेश करके वहां दिशाओंके ईश्वरोंकी पूजाका स्थापन करे ॥ ७ ॥ और पुरोहित मन्त्रोंसे उस पूजाको करके उस संस्कृत भूमिमें कुशाओंके मध्य में किये हुए अक्षत और सफेद सरसों को बखेरे ॥ ८ ॥ सावधानः शुचिः सूक्ष्मक्षौमवासा जितेन्द्रियः । प्राङ्मुखो रुद्ररुद्रेति हृदि रुद्रविधि जपेत् ॥ ५ ॥ पट्टचं रुद्रजापं च कारयेत्प्रयतः शुचिः ॥ ६ ॥ प्रकारान्तरम् - दुकूलमुक्तामणिभृन्नरेन्द्रः समंत्रिदेवज्ञपुरोहितोऽन्तः । स्वदेवतागारमनुप्रविश्य विवेशयेत्तत्र दिगीश्वरार्चाम् ॥ ७ ॥ अभ्यर्च्य मन्त्रैस्तु पुरोहितस्तामतश्च तस्यां भुवि संस्कृतायाम् । दुर्भैश्च कृत्वान्तरमक्षतैस्तान्किरेत्सम तात्तिपश्च ॥ ८ ॥ ब्राह्मीं सदूर्वामथ नागयूथि कृत्वोपधानं शिरसि क्षितीशः । पूर्णान्घदान्पुष्पफलान्वितांस्तानाशासु कुय्र्याच्चतुरः क्रमेण ॥ ९ ॥ येज्जायतो दूरमुदैति दैवमावर्त्य मंत्रान्प्रयतस्तथैतान् । लघ्वेकभुग्दक्षिणपार्श्वशायी स्वयं परीक्षेत यथोपदेशम् ॥ १० ॥ नमः शम्भो त्रिनेत्राय रुद्राय वरदाय च ॥ वामनाय विरूपाय स्वप्नाधिपतये नमः ॥ ११ ॥ बाली दूब नागयूथी इनको भी बखेरे फिर राजा तकिया लगाकर पुष्प फलोंसहित पूर्ण घटोंको क्रमसे चारों दिशाओंको रखकर शयन करे ॥ ९ ॥ और ' यजाग्रतो दूरमुदेति दैवम् ' इत्यादि मंत्रोंको सावधानीसे पढ़ताहुआ और एकबार लघु भोजन करता और दक्षिणपार्श्वसे सोता हुआ राजा गुरुकी आज्ञाके अनुसार स्वमकी परीक्षा करे ॥ १० ॥ हे शंभो त्रिनेत्र रुद्र ! वरके दाता वामन विरूप ! जाग्रतो दूरमुदेति देवं तदु सुप्तस्य तथैवेति । दूरद्मं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनश्शिवसंकल्पमस्तु ॥