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भक्षण करनेयोग्य कंदमल इनका दर्शन होय तो वह भूमि सुख देनेवाली होती है; कंटक सांप खजूर दर्द ॥ २२७ ॥ विच्छू पत्थर वज्र वि. म. छिद्र लोहका मुहर केश अंगार भस्म चर्म अस्थि लवण ॥ १२८ ॥ और रुधिर मज्जा इनका दर्शन होय और जो भूमि रससे युक्त होय * इतनी भूमि श्रेष्ठ नहीं होती ॥ इति पण्डितमिहिर चन्द्रकृतभाषाविवृतिसहिते वास्तुशास्त्रे भूम्यादिपरीक्षालक्षणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥ इसके अनंतर स्वम आदिकी विधिको कहते हैं, गणेश लोकपाल विशेषकर पृथ्वी और ग्रह इनका कलशके ऊपर मंत्रशास्त्र के अनुसार पूजन खाद्यानि कन्दमूलानि सा भूमिः सुखदायिनी । कण्टकञ्च तथा सर्प खर्जूरं दर्दुमेव च ॥ १२७ ॥ वृश्चिकाश्मकवज्रञ्च विवरं लोहमुद्गरम् । केशाङ्गारकभस्माश्च चर्मास्थि लवणं तथा ॥ १२८ ॥ रुधिरञ्च तथा मजा रसाक्ता ता न शोभनाः ॥ इति वास्तुशास्त्रे भूम्यादिपरीक्षालक्षणवर्णनं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥ अथ स्वप्नविधिः ॥ गणेशं लोकपालांश्च पृथिवीं च विशे पतः । ग्रहांश्च कलश पूज्य यथामन्त्रं यथोदितम् ॥ १ ॥ यथाकल्पमुपस्कृत्य शुचौ देशे कुशासनः । भूमौ शुद्धेन वस्त्रेण शीर्षे सम्पूजयेच्छ्रियम् ॥ २ ॥ पद्माञ्च भद्रकालीञ्च बलिं दत्त्वा तथैव च । सर्ववीजान्वितान् कुंभान्सर्वरत्नौषधैर्युतान् ॥ ३ ॥ कृत्वोभयतटे रम्यान्नवाञ्छुद्धोदकान्वितान् । कल्पयित्वा सुमनसः कृत्वा स्वस्त्ययनादिकम् ॥ ४ ॥
करके ॥ १ ॥ सामर्थ्य के अनुसार सामग्रियोंका संचय करके शुद्ध देशमें कुशासनपर बैठे और भूमिमें शुद्ध वत्रके ऊपर शिरके स्थान में लक्ष्मीका पूजन भली नकार करे ॥ २ ॥ पद्मा भद्रकाली इनको बलि देकर और सव बीज सर्व रत्न और सर्वोषधियोंसे युक्त ऐसे घटोंको ॥ ३ ॥ अपने दोनों तटोंमें रक्खे जो रमणीक नवे और शुद्ध जलसे युक्त हों और पुष्पोंका संनय करके स्वतिवाचनको करके ॥ ४ ॥
भा. टी.
अ. २
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