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कपिलखन वट और गूलर ये चारों वृक्ष क्रमसे ॥ ८३ ॥ पूर्व आदि दिशाओंमें होय तो वेध होता है यह पूर्व समयके आचार्य जानते हैं. राज |
वृक्ष निंब आम्र और केला ॥ ८४ ॥ ये वृक्ष पूर्व आदि दिशाके क्रमसे होय तो वेध करते हैं, आग्नेय आदि विदिशाओंके क्रमसे दूधवाले
वृक्ष और कदम्ब ॥ ८५ ॥ कण्टक वृक्ष और केले के स्तम्ब होंय तो ये फलके वृक्ष वेध करते हैं पूर्व दिशाके भागमें विवर (छिद्र) हो और व दक्षिणमें मठ मन्दिर हो ॥ ८६ ॥ पश्चिममें कमलों सहित जल हो, उत्तरमें खाई हो, पूर्वमें फलवाले वृक्ष हों और दक्षिणमें दूधके वृक्ष हों ॥ ८॥
पूर्वादिदिक्षु वेधः स्यात्सर्वेषां प्राक्तना विदुः । राजवृक्ष तथा निबं चाम्रकं कदलीफलम् ॥ ८४ ॥ पूर्वादिक्रमयोगेन वेधन्त्येतद् द्रुमांस्तथा । आग्नेयादिक्रमेणेव क्षीरिणोऽथ कदम्बकाः ॥८५॥ कण्टकाः कदलीस्तम्भा वेधन्ते च फलद्रुमाः । विवरं पूर्वदिग्भागे दक्षिणे मठमन्दिरम् ॥ ८६॥ पश्चिमे पौष्कर तोयं खातमुत्तरसंज्ञके। पूर्वेण फलिनो वृक्षाः क्षीरवृक्षाश्च दक्षिणे ॥ ८७॥ पश्चिमे जलजा वृक्षा रिपुतो भयदायकाः । क्षीरिणश्चार्थनाशाय फलिनो दोषदा मताः । दशदण्डानि पर्यन्तं पीड्यन्ते पुरवासिनाम् ॥८८॥ कलहं चाक्षिरोगं च व्याधिशोकं धनक्षतिः।।८९॥ वीथ्यन्तरेण दोषः स्यान्न दोषं मार्गमध्यगम् । विदिकस्थं नैव वेध तु न वेधं दूरतः सदा ॥ ९०॥ नीचस्थाने भवेद्वेधः कोणवेधस्तथैव च । भित्त्यन्तरे न दोषः स्यान दोपश्चत्यमध्यमे ॥ ९१॥ पश्चिममें जलमें उत्पन्न वृक्ष हों ये सब शत्रुओंसे भयको देते हैं दूधवाले अर्थको नष्ट करते हैं. फलवाले दोषको देते हैं, दश दण्डपर्यंत पुरके वासियोंको पीडा देते हैं ॥ ८८ ॥ कलह नेत्ररोग व्याधि शोक और धनके नाशको करते हैं। ८९ ॥ बीथिके अन्तर ( मध्यम ) में दोष होता है, मार्गके मध्यमें दोष नहीं होता विदिशाओंमें स्थित हो और दरपर होय तो सदैव वेध नहीं है॥ ९० ॥ नीचेके स्थानमें वेध होता है, कोणमें भिनिके मध्यमें दोष नहीं और न चैत्यके मध्य में दोष होता है ॥ ९१ ॥