________________
कमलोके मध्य में और वाणघातक में दोष नहीं है, विकोणाम और न फलके वृक्षमें दोष है ॥ ९२ ॥ नीच जातियोंमें दोष नहीं है, न भग्न ( टूटे) मन्दिर में दोष है, चौराहे के अन्तमें दोष नहीं, न जीर्ण गृहों के मध्य में दोष है ॥ ९३ ॥ अत्यन्त ऊंचा और अत्यन्त नीचा और मध्य में विषम लंघन जिसमें हों और मध्यमें जहां जल और पर्वत हों इनमें भी वेधका दोष नहीं होता ॥ ९४ ॥ जिस मन्दिरके मध्यमें बेल आम अनारके वृक्ष मैं लगाये हुए हों उसमें भी वेधका दोष नहीं है; यह सत्य बात ब्रह्माके मुखसे सुनी है ॥ ९५ ॥ यदि दोष हो- छठे वर्षमें स्वामी मरता है, नववें
॥ ९९ ॥
न दोपः पुष्करान्तस्थं न दोषो बाणघातके । न दोषं तु विकोणे तु न दोषं फलवृक्षके ॥ ९२ ॥ न दोषं नीचजातेषु न दोषं भग्न मन्दिरे । चतुष्पथान्ते न भवेद्वेधो जीर्णगृहान्तरे ॥ ९३ ॥ अत्युच्च मतिनीचं च मध्ये विषमलङ्घनम् । अन्तर्जलाद्विपतने वेधदोषो न विद्यते ॥९४॥ अन्तरारोपिता वृक्षा बिल्वदाडिमकेसराः । न तत्र वेधदोषः स्यात्सत्यं ब्रह्ममुखाच्छ्रतम् ॥ ९५ ॥ वेधदोपे-पढर्षे म्रियते स्वामी गतश्रीवमे भवेत् । चतुर्थे पुत्रनाशः स्यात्सर्वनाशस्तथाष्टमे ॥ ९६ ॥ पक्षेण मासेन ऋतुत्रयेण संवत्सरेणापि फुलं विधत्ते । शुभाशुभं क्षेममिदं बुधैस्तु नातः परं तत्र विचारमस्ति ॥ ९७ ॥ मातङ्गो दक्षिणे भागे पूर्वे पश्चात्तथोत्तरे । सिंहो विधत्ते मरणं पुत्राणां दोषदं महत् ॥ ९८॥ पूर्वे वृष तथा तोये ध्वज दोषकरं महत् । इतिकण्ठीरवौ गेहो याम्यपश्चिम दिविस्थतौ ९९ ।। वर्षमें लक्ष्मी से रहित होता है, चौथे वर्ष में पुत्रका नाश होता है और आठवें वर्ष में सर्वनाश होता है ॥ ९६ ॥ एक पक्षसे एक माससे तीन ऋतु ओंसे घर शुभ वा अशुभ फलको देता है यही कुशल है, इससे परे बुद्धिमानोंका उसके विषे विचार नहीं है ॥ ९७ ॥ जिस मन्दिर वा किले में हस्तीका स्थान दक्षिणभाग में हो और पूर्व पश्चिम उत्तर में सिंहका स्थान होय तो मरण करता है और पुत्रोंको महान् दोषको देता है ॥ ९८ ॥ पूर्व में वृष और जल वा ध्वजा होय तो महान दोषको करते हैं, यदि कण्ठीरव नामके घर दक्षिण और पश्चिम दिशाओंमें होय ॥ ९९ ॥
वि..
ना.टी.
अ. १३
॥ ९९ ॥