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वि.प्र, 1134 11
उसके ईश (स्वामी) की दशापर्यंत स्थल जलसे भरा हुआ हो ॥ ७५ ॥ जो कहीं भी छिद्रमें विलीन (छिपा ) न हो ऐसे स्थलके मध्यका घर दोषदायी नहीं होता. कूप उद्यान प्रपा वापी तंडाग और जलाशय ॥ ७६ ॥ मन्दिर देवस्थान चैत्य प्राकार तोरण इनमें निरन्तर वास्तु वसता है उनके मध्य में स्थित घर शुभ होता है ॥ ७७ ॥ दक्षिण उत्तरमें तैसेंही पश्चिम पूर्वमें इन चारोंमें जहां मार्गोंका मेल हो उसे चतुष्पथ ( चौराहा ) कहते हैं ॥ ७८ ॥ पहिला घर दक्षिणभागमें स्थित हो, पश्चिमका घर उत्तर भागमें स्थित हो इनके मध्यस्थानमें किया हुआ जो न विलीनं क्वचिद्रन्ध्रे तदन्तस्थं न दोषकम् । कूपोद्यानप्रपावापीतडागे च जलाशये ॥ ७६ ॥ मन्दिरे देवसदने चैत्ये प्राकार तोरणे । सततं वसते वास्तु तन्मध्यस्थं गृहं शुभम् ॥७७॥ दक्षिणोत्तरयोश्चैव तथा पश्चिमपूर्वयोः । मार्गयोर्मेलनं यत्र तच्चतुष्पथ मीरितम् ॥७८॥ आदौ गृहं दक्षिणभागसंस्थं पश्चात्तथोत्तरम् । मध्यस्थानकृतं गेहूं न दुष्यति कदाचन ॥ ७९ ॥ तथैव पश्चिमे पूर्वे कृतमध्यगतं गृहम् । तथैव सुखदं प्रोक्तं सदनं पश्चिमे स्थितम् ॥ ८० ॥ विषमे न भवेद्वेधं न वेध च नतोन्नते । गृहस्य दक्षिणे भागे कूपो दोषप्रदो मतः ॥ ८१ ॥ अपत्यहानिर्भूनाशस्त्वथवा रोगमद्भुतम्। अदर्शनेन दीपारे दूरे वा समभूमिषु ॥ ८२ ॥ न वेधन्ते गृहाः सर्वे यथोक्तदिशि संस्थिताः । अश्वत्थश्च लक्षवटोदुम्बराश्च क्रमेण च ॥ ८३ ॥
घर है वह कदाचितभी दूषित नहीं होता ॥ ७९ ॥ तैसेही पश्चिम और पूर्व घरोके मध्यमें गत जो घर है वहभी तिसी प्रकार सुखदाता है तैसेही पश्चिमदिशा में स्थित सदन (घर) सुखदायी होता है ॥ ८० ॥ विषम घर में वेध नहीं होता और नतोन्नत ( ऊंचे नीचे) में वेध नहीं होता. घरके दक्षिणभाग में कूप दोषका दाता माना है ॥ ८१ ॥ होय तो सन्तानकी हानि, भूमिका नाश अथवा अद्भुत रोग होता है. दीपक और पंक्तिका दर्शन न हो वा सम भूमियोंके दूर हो तो ॥ ८२ ॥ संपूर्ण घर चाहे पूर्वोक्त दिशाओं में स्थित हो वेधको प्राप्त नहीं होते. पीपल
भा. टी.
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