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वि. प्र.
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वा नीचे भागमें आगे दूसरा घर होय तो दोष होता है ॥ ५९ ॥ जैसे अमावास्या में उत्पन्न हुई कन्या और पुत्र ये योगसे पिताके मरणको करते हैं. ऐसे ही प्रतापका अभिलाषी मनुष्य दक्षिण दिशाके घरको त्याग दे ॥ ६० ॥ जैसे रक्तकेशी लम्बोष्ठी पिंग (पीले ) नेत्री कृष्ण तालुका जो कन्या है वह शीघ्र भर्ताको नाश करती है. इसी प्रकार याम्यदिशाकं घर पर भी नष्ट हो जाता है ।। ६१ ।। जैसे आलस्य से देह, कुपुत्रसे कुल और दरिद्रसे जन्म वृथा होते हैं. ऐसे ही याम्यग्रहसे पुर नष्ट होता है ॥ ६२ ॥ जहां प्रथम उत्तर दिशा में घर बनाये जांय और दक्षिण दिशामें पीछे बनाये जांय ऐसा घर जहां हो वहां पुत्र और दारा आदिका नाश होता है ॥ ६३ ॥ ईशानमें छाग ( बकरा ) का स्थापन अमावास्योद्भवा कन्या पितृहायोगतः सुतः । तथा याम्यं गृहं त्याज्यं नरेण भूतिमिच्छता ॥ ६०॥ रक्तकेशी च लम्बोष्ठी पिङ्गाक्षी कृष्णतालुका | भर्तारं हन्ति सा क्षिप्रं तथा याम्यगृहात पुरम् ॥ ६१॥ आलस्यन यथा देहं कुपुत्रेण यथा कुलम् । दरिद्रेण यथा जन्म तथा याम्यगृहात्पुरम् || ६२ ॥ उदीचीं विन्यसेदादो पश्चाद्याम्यं तु विन्यसेत् । तद्गृहं विद्यते तत्र पुत्रदारादिनाशनम् ||६३|| ईशाने विन्यसेच्छामं न च्छागः सिंहभक्षकः । आग्नेयस्थं गृहं काकं वायव्यस्थं च श्येनकम् ॥६४॥ काकं च भक्षयेदा दौ पश्चान्नैऋत्य दिक्कृतम् । छागसदृशमीशाने सिंहनामा तु नैर्ऋते ॥ ६५ ॥ सिहो भक्षयते श्येनं न काकः श्येनभक्षकः । आग्नेयादि क्रमेणैव अन्त्यजा वर्णसङ्कराः ॥ ६६ ॥ ज्ञातिभ्रष्टाश्च चौराश्च विदिक्स्था नैव दोषदाः । वैपरीत्येन वेधः स्यात्तद्गृहाणां विरोधतः॥६७॥ करे. छाग सिंहका भक्षण नहीं कर सकता अग्निकोणका घर काक होता है, वायव्यदिशामें स्थित घर श्येन होता है ॥ ६४ ॥ वह श्येन प्रथम काकको भक्षण करता है। पीछे नैर्ऋत्य दिशाके कृत्यको बनवावे. ईशान में भी छागके समान चिह्न बनवावे. नैर्ऋत्यका घर सिंहके नामसे होता है ॥ ६५ ॥ सिंह श्येनको भक्षण करता है, काक श्येनको भक्षण नहीं कर सकता. अग्निकोण आदिके क्रमसे अन्त्यज और वर्ण ॥ ९७ ॥ संकरों को बनावे ॥ ६६ ॥ जातिसे भ्रष्ट (पर्तित ) वा चोर हैं वे विदिशाओं में स्थित होगें तो दोषदायो नहीं होते इससे विपरीत भावसे
भा. टी.
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