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वरुणकी दिशा में स्थित घर ऊंचाई में प्रांत के दण्डभर पुरके प्रमाणसे न्यून, दक्षिणदिशाका घर ऊंचाईमें बीस दण्डभर न्यून होना चाहिये ॥ ५४ ॥ अब संक्षेपसे शूद्रों के पुर से लेकर पुरको कहता हूँ-प्रांतभागमें दश दण्डपर्यंत पूर्वभाग में नीचा हो ॥ ५५ ॥ नीचे स्थान में स्थित घरके उत्तर ॐ भागमें द्वादश १२ दण्ड होने चाहिये. यदि पश्चिमका घर उच्च भूमिमें होय तो तीस दण्ड होते हैं ॥ ५६ ॥ दक्षिण भागमें सौ दण्डपर्यंत ग्रहोंको वर्जदे अर्थात् न बनवावे. विपरीत भागमें बुद्धिमान मनुष्य पूर्वोक्तसे पादहीन दण्डोंको त्यागकर ॥ ५७ ॥ सौ दण्डपर्यंतमें पुरवासियों को जलाशासंस्थितोऽप्युच्चे प्रान्तदण्डान् हरेत् पुरात् । याम्योच्चस्थो हरेद्वेहं दण्डान् विंशतिसम्मितान् ॥ ५४ ॥ शूद्राणां तु समा सेन कथयामि पुरात्पुरम् । दशदण्डानि पर्यन्तं प्रयान्ते पूर्वनीचगम् ॥ ५५ ॥ उत्तरे द्वादशं दण्डं नीचस्थानस्थितस्य तु । पश्चिमे त्रिंशद्दण्डानि यदि चेदुच्चभूमिषु ॥ ५६ ॥ दक्षिणे शतदण्डानि गृहाणि परिवर्जयेत् । वैपरीत्ये पादहीनान् दण्डान्सन्त्यज्य बुद्धिमान् ॥ ५७ ॥ शतं दण्डानि पर्यन्तं पीडयते पुरवासिनाम् । समभूमिषु सन्त्याज्यो वेधोऽयं द्विजपुङ्गवैः ॥ ५८ ॥ दक्षिणे ऽन्तोदिग्विषये भवनवरेऽर्थक्षयोऽङ्गनादोषाः । सुतमरणं प्रेक्षत्वे भवति सदा तत्र वासिनां पुंसाम् । गृहं गृहाद्धं च तथा चतुर्थी भावो भवेद्दिग्विषये स्थितो वा । ऊर्ध्वे च नीचे यमदिक्स्थितस्य गेहं च चाग्रे प्रभवेच्च दोषः ॥ ५९ ॥
पीडा होती है. ये द्विजों में श्रेष्ठोंको समान भूमिमें वेध त्यागने योग्य हैं ॥ ५८ ॥ जिस भवनवर ( श्रेष्ठ ) का दिशाओंके विषयमें दक्षिणमें अन्तहो उसमें धनका क्षय और स्त्रियोंमें दोष होता है. प्रेक्षत्व ( दीखने योग्य ) जो अन्य घरसे हो उस घरमं बसनेवाले पुरुषोंके पुत्रोंका मरण होता है. पूरा घर वा घरका अर्द्ध भाग यह चौथा भाव यदि दिशाओंके विषय में स्थित हो और दक्षिण दिशामें स्थित घरके ऊंचे
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