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भा.व. अ. १३
वि. प्रताउसमें बसे तो अवस्था पुत्र कलत्र ये शीघ्र नष्ट होते हैं, पूर्व उत्तरमें जो घर नीचा है वह जलके समीप भागमें होय तो॥४८॥ मध्यकी
भूमि दोषकी दाता नहीं होती, इतने ये दोनों घर दीखनेके योग्य हों. जो घर उंचेभागमें स्थित पूर्वदिशाके भागमें बीस दंड हों वहभी। ॥१६॥ श्रेष्ठ है॥४९॥ अन्यजातिका मनुष्य राजाके मंदिरमें न वसे. सौम्य (उत्तर) मागमें जिसके तीस दंड और पश्चिममें चालीस दण्डहों ॥५०॥
जिसकी दक्षिणदिशामें पंचाशत् ५० दण्ड हों और नीचे भागमें स्थित हों, प्रासादकी वीथी (गली) घर और अग्नि ईशान और नेत
आयुःपुत्रकलबाणि यतः शीघ्र विनश्यति । पूर्वोत्तरे गृहे नीचे भवेदादौ जलान्तिक॥४८॥मध्यभूमिर्न दोषाय यावदृष्टिपथेऽनयोः। | तुङ्गस्थे पूर्वदिग्भागे दण्डान्विंशतिसम्मितान् ॥४९॥ न चान्यजातीयनरो नृपसद्म वसेन्नरः । सौम्यभागे तथा त्रिंशञ्चत्वारिंशच्च पश्चिमे ॥५०॥ याम्ये पञ्चाशत्संख्यानि दण्डानि नीचसंस्थितः। प्रासादवीथी च तथा गृहं च आग्रेयवायव्यतथेशरक्षे । त्रिकोण वेधः कथितः क्रमेण सुतार्थिना तत्र विवर्जनीयाः॥५१॥आग्नेयं दृष्टितो विद्धं वायौ द्विगुणभूमिषु । नैर्ऋत्ये दृक्पथं यावदीशाने त्रिगुणं गृहात् ॥५२॥ एतन्नृपाणां कथितं वर्णानामनुपूर्वशः । पूर्वाशादिक्रमेणैव ब्राह्मणादिक्रमेण च । पञ्चाशद्धनुषात्रीच्चविधेय द्विजमन्दिरात् । तथा सौम्यजनो नीचो दण्डान् सप्ततिसंमितान् ॥ ५३॥ कोणमें जिसके वेध हों यह त्रिकोणवेध संक्षेपसे कहा. पुत्रका अभिलाषी मनुष्य इसको विशेषकर वर्जदे ॥५१॥ अग्निकोणका घर दृष्टिसे विद्ध
होता है. वायुकोणका घर द्विगुणभूमियोंमें विद्ध होताहे. नैर्ऋत्यमें इतने दृष्टिके मार्गमें हो और ईशानमें गृहसे तिगुनेगृहसे वेध होता हे ॥५२॥ क यह राजाओंके धरोंका वेध वर्णांके क्रमसे कहा वह वेध पूर्व दिशाआदिके क्रमसे ब्राह्मण आदिकोंके क्रमसे कहा, द्विजोंके मंदिरसे
पचाश धनुष नीचा अंत्यजातियोंको मंदिर बनवाना और सौम्य स्वभावका नीचजन सत्तरदंड नीचा घर बनवावे ॥ ५३ ॥