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कतिससे बुद्धिमान मनुष्य इन पूर्वोक्त प्रकारके घरोंको वर्जदे, अन्य घरमें लगेहुए काष्ठको अन्य गृहमें न लगावे ॥ ४० ॥ बुद्धिमान मनुष्य
पुराने काष्ठोंसे घरको न बनवावे और बनवावे तो मरण और संपदाओंके नाशको प्राप्त होता है ॥४१॥ जीर्ण घरमें नवीन काष्ठ श्रेष्ठ होता है और नवीन घरमें जीर्ण (पुराना) काष्ठ श्रेष्ठ नहीं होता है. जिस स्थानके घर पूर्व उत्तरमें नीचे हो और दक्षिण पश्चिममें ऊंचे हो ॥ ४२ ॥ जिसकी संपूर्ण दिशा तिरछी हों जिसके भागमें पीडाकै दाता घर हो जो दक्षिणको एक योजन ऊंचा हो पश्चिममें अईयोजन तस्मात्सर्वप्रयत्नेन वर्जयेन्मतिमानरः । अन्यवेश्मस्थित दारु नैवान्यस्मिन्प्रयोजयेत् ॥ ४०॥ना गृहं कारयेद्धीमान्पुराणन च दारुभिः । कुर्वनाप्नोति मरणं संपदा नाशमेव च ॥४१॥ जीर्णे तु नूतनं शस्तं नो जीर्ण नूतने शुभम् । पूर्वोत्तरे नीचगता उच्चस्था दक्षिणापरे ॥ ४२ ॥ तिर्यग्गताः सर्वदिशाभागे पीडाबहा गृहाः । दक्षिणे योजनमुच्च पश्चिमे चाईयोजनम् ॥४३॥तदर्द्ध मुत्तरे चैव तस्याई पूर्वदिकस्थितम् । एतद्वेधं नृपाणां च गृहाणां कथितं द्विजाः ॥४४॥ विशेषेण द्विजातीनां प्रमाणं कथ याम्यतः । पूर्वोत्तरे नीचभागे शतपादान्वितं तथा ॥४५॥ दण्डानां पश्चिमे याम्ये द्विशतं साईसंयुतम् । ऊर्वीभूतः पुमान्यस्य
गेहाद्दान्तरं यदि ॥ ४६॥ दक्षिणस्थ प्रपश्येत तद्वेधं च विनिर्दिशेत । उच्चस्थोप्यथ नीचस्थः सदा याम्यगृहं त्यजेत् ॥४७॥ पूाऊंचा हो ॥ ४३ ॥ उससे आधा ऊंचा उत्तरमें हो, उससे आधा पूर्व दिशामें हो, हे द्विजो यह वेध- राजाओंके घरोंका मैंने कहा है ॥४॥
इसके अनन्तर विशेषकर द्विजातियोंके घरोंका प्रमाण कहताहूं-पूर्व उत्तरके नीचे भागमें १०० पादोंसे जो युक्त हो ॥ ४५ ॥ पश्चिम और । दक्षिणमें जिसकी लम्बाई सार्द्धद्विशत ( अढाई सो) हो, जिसके ऊपरके भागमें स्थित मनुष्य एक घरसे यदि दूसरे घरको-४६ ॥ दक्षि
णमें स्थित हो उसको देखसके वह वेध कहा है, उच्चभागमें स्थित हो वा नीचे भागमें स्थित हो परंतु दक्षिणके घरको सदेव त्यागदे ॥४७॥