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________________ वि. प्र. ॥ ८९॥ भा. टी. l है कि-"ॐ ह्रीं कूष्मांडि कौमारि मम हृदये कथय कथय हीं स्वाहा" इक्कीसवार इस मन्त्रसे अभिमन्त्रित ( पढ़ना) करके प्रश्नको लावे और इसमें दिशा सूर्योदयसे गिननी, जलके अन्ततक वा प्रस्तरके अन्तपर्यंत वा पुरुषके अन्ततक ॥ २२॥ क्षेत्रको भलीप्रकार शोधकर शल्यका| उद्धार करके स्थानका प्रारंभ करे. धातु काष्ठ अस्थि इनसे पैदा हुए शल्य अनेक प्रकारके कहे हैं ॥ २३ ॥ हे दिजोंमें उत्तम ! परीक्षा करके घरका प्रारंभ करना. जब घरके प्रारंभ कर्ममें शल्य न जानाजाय ॥ २४ ॥ तो फलके पाक होनेपर अर्थात् कष्ट आदिके होनेपर कर्मके ज्ञाता क्षेत्रं संशोय चोद्धृत्य शल्यं सदनमारभेत् । शल्यानेकविधाः प्रोक्ता धातुकाष्ठास्थिसम्भवाः ॥ २३ ॥ तान् परीक्ष्य प्रकर्तव्यो गृहारम्भो द्विजोत्तम । यदा न ज्ञायते शल्यं गृहारम्भणकर्मणि ॥ २४॥ फल पाकेन शल्यं तज्ज्ञातव्यं कमवेदिभिः । सशल्ये वास्तुसदने पूर्व दुःस्वप्नदर्शनम् ॥ २५ ॥ हानिर्वा रोगमतुलं धननाशस्तथैव च । अन्यानि वास्तुशल्यानि कथयामि समासतः ॥२६॥ सप्तादादाशिते रात्रौ गौर्वा गोष्ठेऽथ बन्धकी । रोदन्ते वारणोऽश्वो वा श्वानो वा गृहमृर्द्धनि ॥२७॥ वन्यो वा प्रविशेद्यस्य निर्विशङ्कोऽथ वा मृगः । श्येनो वाथ कपोतो वा व्याघ्रो गोमायुर्वा तथा ॥२८॥ गृध्रो वाप्यथवा कृष्णसों वाथ शुकोऽपि वा । नरोस्थीनि गृहीतश्च जाङ्गलो वाथ कारणात् ॥ २९ ॥ शल्यको जानलें कि, शल्यसहित वास्तुके स्थानमें पहिले दुष्ट स्वप्न दीखता है ॥ २५ ॥ हानि वा अत्यंत रोग और धनका नाश उस दुःस्वप्नसे होता है. अन्यभी वास्तुके शल्योंको संक्षेपमे कहताहूं ॥ २६ ॥ जिस घरमें सात दिनतक रात्रिके समयमें गौ शब्द करे वा गोष्ठमें बन्धकी खि शब्द करे और जिसमें हाथी अश्व शब्द करे वा घरके ऊपर श्वान शब्द करें॥ २७ ॥ अथवा जिस घरमें वनका मृग निडर होकर प्रविष्ट होजाय वा श्येन कपोत व्याघ्र वा गीदड प्रविष्ट हो जायें ॥ २८ ॥ गीध वा कालासर्प वा शुक (तोता ) जो जंगलका हो वह मनुष्यके अस्थि लेकर ॥८९
SR No.034186
Book TitleVishvakarmaprakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages204
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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