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स्थित होय तो शुभदायी नहीं होती ॥ ७८ ॥ निष्कुट कोलाख्य पृष्टिनेत्र वत्सक कोलक और बन्धुक इतने प्रकारसे छिद्र संक्षेपसे होते हैं ॥ ७९ ॥ घटके समान जो छिद्र हो उसे संकट और निष्कुट कहते हैं. छिद्र अपवित्र और नील हो उसको बुद्धिमान् मनुष्य कोलारुय कहते हैं ॥ ८० ॥ जो छिद्र विषम हो उसे पृष्टिनयन कहते हैं. जो विवर्ण हो और जिसका मध्यभाग दीर्घ हो, जो वाम आवर्तसे भिन्न हो वह यथायोग्य छिद्र वत्सनाभ कहाता है ॥ ८१ ॥ जिसका वर्ण कृष्ण हो वह कालक होता है, जो दो प्रकारका हो वह बन्धुक होता है, समान
निष्कुटं चाथ कोलाख्यं दृष्टिनेत्रं च वत्सकम् । कोलकं बन्धुकं चैव संक्षेपश्छिद्रकस्य तु ॥ ७९ ॥ घटवत्सुषिरं चैव सङ्कटारूपं च निष्कुटम् | छिंद्रनिःपावनीलं च कोलाख्यं तद्बुधैः स्मृतम् ॥ ८० ॥ विषमं पृष्टिनयनं वैवर्ण्य मध्यदीर्घकम् । वामावर्त्ते च भिन्नं च यथावद्वत्सनाभकम् ॥ ८१ ॥ कोलकं कृष्णवर्णं च बन्धुकं यद्भवेद्विधा । दारं सवर्णच्छिद्रं च तथा पापं प्रकीर्तितम् ॥ ८२ ॥ निष्कुटे द्रव्यनाशः स्यात्कोलाख्ये कुलनाशनम् । शस्त्राद्भयं शूकरे च वत्सनाभं गदप्रदम् ॥ ८३ ॥ कालबन्धूकसं ज्ञश्व कीवर्धनशोभनम् । सर्वग्रन्थियुतं यच्च दारु सर्वत्र नो शुभम् ॥ ८४ ॥ एकद्रुमेण धान्यं स्यावृक्षद्वय विनिर्मितम् । धन्यं त्रिभिश्च पुत्राणां वृद्धिदं परिकीर्तितम् ॥ ८५ ॥
वर्ण जिसमें हो ऐसे छिद्रको दार और पापभी कहते हैं ॥ रमें शस्त्रसे मय होता है, वत्सक रोगको देता है ॥ ८३ ॥ सर्वत्र ग्रंथियोंसे युक्तहो वह सब कामों में शुभ नहीं होता
८२ ॥ निष्कुटमें द्रव्यका नाश होता है, कोलारूपमें कुलका नाश और शुक काल बंधूक नामका छिद्र कीटोंकी वृद्धि और शुभदायी होता है, जो काष्ठ ॥ ८४ ॥ एक वृक्षके काष्ठसे धान्य होता है दो वृक्षोंसे जो पपैक आदि
है