________________
బాలరాజు వారాలు
स्थित होय तो क्रमसे पूर्व दक्षिण पश्चिम उत्तर मुखके घरमें प्रवेश करे, गुरु देवता अग्नि विप्र इनको वाम भागमें रक्खे. ऊर्ध्वपाद नक्ष धूत्रोंसे धनका नाश होता है ॥४३॥ उत्तर वा पश्चिमको शिर करके शयन करे तो मृत्यु होती है. शय्याके वंश आदि भी रोग और पुत्रोंको Malदुःख देते हैं, शय्यापर पूर्वको शिर किये शयन करे वा दक्षिणको शयन करे तो सुख और संपदाओंको सदैव प्राप्त होता है और पश्चिमको शिर करनेसे प्रबल चिंता होती है. उत्तरको शयन करनेसे हानि और मृत्यु होती है ॥ ४४ ॥ अपने घरमें पूर्वको शिर किये शयन करे श्वशुरके सौम्यं प्रत्यक्छिरो मृत्युवंशाया रुक्सुतातिदा । प्राविछराः शयने विद्यादक्षिण सुखसंपदः। पश्चिमे प्रबलां चिन्तां हानि मृत्यु तथोत्तरे ॥ १४ ॥ स्वगेहे प्राक्छिराः सुप्याच्छाशुरे दक्षिणाशिराः । प्रत्यक्छिराः प्रवासे तु नोदक्सुप्यात्कदाचन ॥ ४५ ॥ अथ शय्याशयनानां लक्षणम् ॥ कथयामि समासेन दारुकर्मक्रमेण च । आयशुद्धा तथा कार्या यथा गोहरिकुचराः॥१६॥ तथैव दोलिकायानं यथाशोभ विधीयते । प्रमाण शृणु विप्रेन्द्र यत्प्राप्तोऽहं बृहद्रथात् ॥ कथयामि तथा शय्यां येन सौख्यमवाप्नु यात् ॥ ४७ ॥ अशनस्पन्दनचन्दनहरिद्वसुरदारुतिन्दुकीशालाः । काश्मर्यार्जुनपद्मकशाकाम्राः शिशिपा च शुभाः ॥१८॥ घरमें दक्षिणको शिर किये और परदेशमें पश्चिमको शिर किये शयन कर और उत्तरको शिर किये कदाचित् न सोवे ॥ ४५ ॥ अब शय्या और शयनोंके लक्षणोंको कहते हैं। अब क्रमसे और संक्षेप रीतिके अनुसार काष्ठके कर्मको कहते हैं. जैसे-गो अश्व हस्ति आय शुद्धिसे किये जाते हैं इसी प्रकार शय्या भी आय (विस्तार ) से शुद्ध बनवावे ॥४६॥ तिसी प्रकार दोलिका यान (सवारी) ये भी शोभाके अनुसार बनाने कहे हैं. हे विपेंद्र ! उस प्रमाणको तुम सुनो जो मुझे बृहद्रथसे मिला है॥४७॥ शय्याका वर्णन उस प्रकारसे कहताई. जैसे-मनुष्य