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सुखको प्राप्त हो अशन स्पंदन चन्दन हरिदु देवदारु तिंदुकी शाल काश्मरी अर्जुन पद्मक शाक आम्र शिंशपा ये वृक्ष शय्याके वनानेमें शुभ धु होते हैं ॥ ४८ ॥ अशनि (बिजली ) पवन हस्ति इनसे गिरायेहुए और जिनमें मधु ( सहत) पक्षी इनका निवास हो और चैत्य (चबूतरा) श्मशानमार्ग इनमें उत्पन्न और अर्द्धशुष्क भौर लताओंसे चन्धे हुए ॥ ४९ ॥ कंटकी अर्थात् जिनकी त्वचापर कांटे हों जो महानदियोंके । संगममें उत्पन्न हों, जो देवताके मन्दिरमें हों और दक्षिण और पश्चिम दिशामें उत्पन्न हुए हों ॥ ५० ॥ जो निषिद्ध वृक्षसे उत्पन्न हुए हो. जो अशनिजलानिलहस्तिप्रपातिता मधुविहङ्गकृतनिलयाः । चैत्यश्मशानपथिजाधशुष्कवल्लीनिबद्धाश्च ॥ १९ ॥ कण्टकिनो ये स्युर्महानदीसंगमोद्भवा ये च । सुरप्रासादगा ये च याम्यपश्चिमदिग्गताः॥५०॥ प्रतिपिद्धवृक्षजा ये ये चान्येऽपि अनेकधा । त्याज्यास्ते दारवस्सर्वे शय्याकर्मणि कर्मवित् ॥५१॥ कृते कुलविभाशः स्यायाधिः शत्रोर्भयानि च ॥५२॥ पूर्वच्छिनं यत्र दारू भवेदारम्भयेत्ततः । शकुनानि परीक्षेत कुर्यात्तस्य परिग्रहम् । श्वेतपुष्पाणि दन्त्यश्च दध्यक्षतफलानि च ॥५३ ।। पूर्ण कुम्भाश्च रत्नाश्च माङ्गल्यानि च यानि च । तानि दृष्ट्वा प्रकुर्वीत अन्यानि शकुनानि च । यवाष्टकानामुदरे वितुपरमुलं स्मृतम्५४ अन्यभी भिन्न भिन्न प्रकारके हैं वे संपूर्ण काष्ठ शय्याके काममें कर्मके ज्ञाताको त्यागने योग्य हैं ॥५१॥ इन पूर्वोक्त निषिद्ध वृक्षोंकी शय्या बनवानेसे कुलका नाश व्याधि और शत्रुसे भय होता है ।। ५२ ॥ जहाँ शय्याके आरंभसे पहिला छेदन किया काष्ठ हो वहां शकुनोंकी ॥ ७९ ॥ परीक्षा करके उस काष्ठको ग्रहण करे, श्वेतपुष्प दन्त दधि अक्षत फल ॥ ५३ ॥ जलसे पूर्ण घट और रत्न अन्य जो मंगलकी वस्तु हैं उनको