________________
वि.प्र. ।। ७४ ।।
और घी जिसपर लिपाया हो ऐसे कुठारसे पूर्व उत्तरकी दिशामें प्रदक्षिण क्रमसे भली प्रकार छेदन करके उसके अनन्तर शेष वृक्षका छेदन | करे ॥ ३४ ॥ और गोलाकारसे छेदन करे और वृक्षके पतनको देखतारहे, पूर्व दिशा में गिरे तो धन और धान्यसे पूरित घर होता है, अनि दिशामें पडै तो अग्निका दाह करता है दक्षिणका पतन मृत्युको देता है नैर्ऋत्य में कलहको करता है और पश्चिमका पतन पशुओं की वृद्धिको देता है ॥ ३५ ॥ वायव्यमें चोरोंका भय होता है उत्तरके पतनमें धनका आगम होता है ईशान में महाश्रेष्ठ और अनेक प्रकारसे उत्तम छेदयेद्वर्तुलाकारं पतनं चोपलक्षयेत् । प्राग्दिशः पतनं कुर्याद्धनधान्यसमर्चितम् । आग्नेय्यामनिदाहः स्यादक्षिणे मृत्युमादिशेत् ।
ये कलहं कुर्यात्पश्विमे पशुवृद्धिदम् ॥ ३५ ॥ वायव्ये चौरभीतिः स्यादुत्तरे च धनागमम् । ईशाने च महाश्रेष्ठ नानाश्रेष्ठ तथैव च ॥ ३६ ॥ भग्नं वा यद्भवेत्काष्ठं यच्चान्यत्तरुमध्यगम् । तन्न शस्तं गृहे वज्यै दोपदं कर्म कारयेत् ॥ ३७ ॥ भग्नकाष्ठे हता नारी स्वामिनायुधसंज्ञके । कर्मकर्त्तारमन्तस्थं धननाशकरं महत् ॥ ३८ ॥ एकमाद्यं महाश्रेष्ठं धनधान्यसमृद्धिदम् । पुत्रदार पशूंश्चैव नानारत्नसमन्वितम्॥ ३९ ॥ द्विभागं सफलं प्रोक्तं त्रिभागं दुःखदं स्मृतम् । चतुष्पष्ठे बन्धनं च पञ्चमे मृत्युमादिशेत् ॥ ४० ॥ होता है ॥ ३६ ॥ जो काष्ठ भग्न होता है और अन्यवृक्षके मध्यमें जमे हुए वृक्षका जो काष्ठ होता है वह घरमें लगाना श्रेय नहीं है किंतु वर्जित है और दूषित कर्मको करवाता है ॥ ३७ ॥ भनकाष्ठमें नारीका मरण होता है शस्त्रसे छेदन किये काष्ठसे स्वामीका नाश होता है मध्यका काष्ठ कर्मके कर्ता (मिस्त्री) को नष्ट करता है अधिकभी धनका नाशकारी है ॥ ३८ ॥ एक भागका काष्ठ महाश्रेष्ठ होता है और धन धान्यकी वृद्धिको देता है और पुत्र दारा पशु और अनेक रत्नोंसे युक्त घरको करता है ॥ ३९ ॥ दोभागका वृक्ष सफल कहा है तीन ॥ ७४ ॥
भा. टी.
अ. ९