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________________ थि विस्तारसे दनी ऊंचाई होती है वह चालीस हस्तोंसे उत्तम कही है ॥ ८६ ॥ उत्तम घर धन्य आयुका दाता धनधान्यका वर्द्धक होता है| L.. घरमें १८० एकसौ अस्सी ऐसी खिडकी हों जिनमें पवनका गमन आगमन होता हो ।। ८७ ॥ किसी प्रकार दशअधिक शत ११० वा सोल हसे अधिक शत ११६ अथवा शत हो, वा तृतीय ७५ हो अथवा अशीति ८० ऐसे द्वार बनवावे ॥ ८८ ॥ ये दश प्रकारके द्वार क्रमसे सदैव कहे हैं. अन्य जो मनके उद्वेग करनेवाले द्वार हैं वे सदेव वर्जित हैं ॥ ८९॥ द्वारके वेधको तो यत्नसे सर्वथा वर्ज दे घरकी ऊंचा धन्यमुत्तममायुष्यं धनधान्यकमेव च । शतं चाशीतिसहितं वातनिर्गमनं भवेत् ।। ८७ ॥ अधिकं दशभिस्तद्वत्तथा पोडशभिः शतम् । शतमानं तृतीयं तु भवत्यशीतिभिस्तथा ॥ ८८ ॥ दशद्वाराणि चैतानि क्रमेणोक्तानि सर्वदा । अन्यानि वर्जनीयानि मनसोरेगदानि तु ॥८९॥ द्वारवेधं तु यत्नेन सर्वथा परिवर्जयेत् । गृहोच्छ्रायाद्विगुणितं त्यक्त्वा भूमि बहिः स्थितः॥ ९ ॥ न दोषाय भवेद्वेधो गृहस्य गृहिणस्तथा । गृहाचे गृहिणी ज्ञेया गृहात्पूर्वोत्तरा शुभा ॥ ९१ ॥ पक्षिणी वा तथैव स्यादन्यगेहा न सिद्धिदाः । पृष्टद्रारं न कर्तव्यं मुखद्वारावरोधनम् ।। ९२ ॥ पिहिते तु मुखद्वारे कुलनाशो भवेद्धवम् । पृष्टद्वारे सर्वनाशः स्वयमुद्घाटित तथा ॥ ९३ ॥ ईसे दनी भूमिमें छोडकर बाह्य भागमें द्वार स्थित रहता है ॥९० ॥ एक घरका वेध गृहके स्वामीको नहीं होता है घरका आधा भाग गृहिणी जानना वह गृहसे पूर्व और उत्तरमें शुभ है ॥ ९१ ।। वा पक्षिणी होती है इस प्रकारसे अन्यके वनवाये घर सिद्धि के दाता नहीं होते। मुखके द्वारका जिससे अवरोध ( रोक) हो ऐसे पृष्ठ द्वारको कदाचित् न बनवाने ॥ ९२ ॥ यदि द्वारके मुखका अवरोध होजाय। तो निश्चयसे कुलका नाश होता है. पृष्ठके द्वारमें सबका नाश होता है. स्वयं उद्घटित ( खोले ) में भी यही अनिष्ट फल होते हैं अर्थात
SR No.034186
Book TitleVishvakarmaprakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages204
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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