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शक होता है, विना वात कलह शोकको और स्त्रियोंके वासमें दूषणोंको करता है ॥ ७८ ॥ उत्तरमें जो पांचवां द्वार है उसको ब्रह्मासे विद्ध। कहते हैं तिससे संपूर्ण शिराओं ( कोण) में और विशेषकर मध्यभागमें ॥ ७९ ॥ बुद्धिमान् मनुष्य द्वारको न बनवावे और प्रासादमें तो पूर्वोक्तसे विपर्यय ( उलटा) होता है देवताके संनिधान (समीप) में और श्मशानके संमुख गृहमें भी विपरीत फल समझे ॥ ८० ॥ स्तंभके | वेध और पाषाणके बंध स्त्रीका नाश होता है, देवताके संनिधानमें घर होय तो घरके स्वामीका क्षय होता है ॥ ८१ ॥ इमशानके संमुख उत्तरे पञ्चमं द्वारं ब्रह्मणो विद्धमुच्यते । तस्मात्सर्वशिरा ह्येव मध्ये चैव विशेषतः ॥ ७९ ॥ द्वारं न कारयेद्धीमान् प्रासादे तु विपर्ययः । देवतासनिधाने तु श्मशानाभिमुखं तथा ॥८०॥ स्त्रीनाशं स्तम्भवेधे स्यात्पापाणे च तथैव च । देवतासन्निधानस्ने गृहे गृहपतेः क्षयः ॥ ८१ ॥ श्मशानाभिमुखे गेहे राक्षसायमादिशेत् । चतुःपष्टिपदं कृत्वा मध्ये द्वार प्रकल्पयेत् ॥ ८२॥ विस्ताराद्विगुणोच्छायस्तत्रिभागः कटिभवेत् । विस्तारार्द्धं भवेद्गों वित्तयोन्यः समन्ततः॥ ८३ ॥ गर्भपादेन विस्तीर्ण द्वारं द्विगुणमुच्छितम् । उच्छ्रायात्पादविस्तीर्णा शाखा तद्वदुदुम्बरा ॥८॥ विस्तारपादप्रमितं बाहुल्यं शाखयोः स्मृतम् । त्रिपंचसप्त नवभिः शाखाभिारमिष्यते।।८॥कनिष्ठ मध्यम ज्येष्ठ यथायोगं प्रकल्पयेत्। विस्ताराद्विगुणोच्छ्रायश्चत्वारिंशद्भिरुत्तमम्॥८६॥ घरमें राक्षसोंसे भय होता है इससे चतुःषष्टिपद वास्तुविधिको करके मध्य में द्वारको बनवावे ॥ ८२ ॥ विस्तारसे दूनी उंचाई और ऊंचाईका तीसरा भाग पृष्ठ होता है और विस्तारसे आधा गर्भ (चौक) होता है और वित्तकी योनि चारोंतरफ होती हैं ॥ ८३ ॥ गर्भके पादसे| विस्तीर्ण और दिगुण उंचा द्वार होता है. उंचाईसे पादमात्र विस्तारकी (गूलर) देहलीकी द्वारशाखा होती है ॥ ८ ॥ विस्तारके पादकी बराबर शाखाओंका बाहुल्य कहा है, तीन, पांच, सात, नौ, शाखाओंका द्वार इष्ट होता है ॥ ८५ ॥ उसको कनिष्ठ मध्यम ज्येष्ठ यथायोग्य बनवावे.