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वि.प्र.
अर्थात् सुखसे जाने आने योग्य होना चाहिये, प्राकार और प्रपामें द्वार पूर्व और उत्तरमें बनवावे ॥ ७० ॥ द्विशालाओंमें भी दुर्गमें द्वारका दोष नहीं होता है॥१॥ जो प्रधान महाद्वार बाहिरकी भीतोंमें स्थित है इसको भूति (ऐश्वर्य) का अभिलाषी राजा रथ्यासे विद्ध न बनवावे ॥ ७२ ॥ जिस घरमें सरल मार्गसे प्रवेश होता है उसमें मार्गके वेधको नानाशोकरूप फलोंका दाता समझे ॥ ७३ ॥ यदि द्वारके मुखपर वृक्ष स्थित होय तो उसको तरुवेध जाने, उस वेध कुमारका मरण और नानाप्रकारके रोग होते हैं॥ ७४ ॥ धरके द्विशालासु च तच्च द्वारं प्राग्वत्प्रकल्पयेत् । चतुर्दारमये दुगै द्वारदोषो न विद्यते ॥ ७१ ॥ प्रधानं यन्महाद्वारं बाह्यभित्तिषु संस्थितम् । रथ्याविद्धं न कर्तव्यं नृपेण भूतिमिच्छता ॥ ७२ ॥ सरलेन च मार्गेण प्रवेशो यत्र वेश्मनि । मार्गवेधं विजानीया नानाशोकफलप्रदम् ॥ ७३ ॥ तरुवेधं विजानीयाद्यदि द्वारमुखे स्थितम् । कुमारमरणं ज्ञेय नानारोगश्च जायते ॥ ७ ॥ अपस्मारभयं विद्याद्गृहाभ्यन्तरवासिनाम् । द्वाराग्रे पञ्चवेधं तु दुःखशोकामयप्रदम् ॥७२॥ जलस्रावस्तथा द्वारे मूलेऽनथे च यो भवेत् । द्वाराग्रे देवसदनं बालानामार्तिदायकम् ॥७६॥ देवद्वारं विनाशाय शाङ्करं द्वारमेव च । ब्रह्मणो यच्च संविद्धं तद्भवेत् । कुलनाशनम् ॥ ७७॥ गृहमध्ये कृतं द्वारं द्रव्यधान्यविनाशनम् । अवातकलहं शोकं नार्यावास प्रदूषयेत् ॥ ७८॥ भीतर जो बसते हैं उनको अपस्मार (मृगी ) रोगका भय जानना. द्वारके आगे पांच प्रकारका वेध दुःख शोक और रोगको देता है।। ७५ ॥ द्वारमें जलका स्राव (बहना) हो वा मूलमें होय तो अनाँका समूह होता है द्वारके आगे देवताका स्थान होय तो बालकोंको दुःखदायी होता है । ७६ ॥ देवताके मंदिरका द्वार होय तो वह विनाश करता है, महादेवके मंदिरका द्वार ब्रह्माके स्थानके। द्वारसे विधा होय तो वह कुलको नष्ट करनेवाला होता है ॥ ७७ ॥ घरके मध्यभागमें बनाया हुआ द्वार द्रव्य और धान्यका विना
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