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वरुणमें क्रोध और भांग असुर में राजाका भंग होता है ॥ ६२ ॥ शोक में नित्य अत्यन्त सूखापन, पापनाम केमें पापका संचय, उत्तरमें नित्य रोग और मरण, नागमें महान शत्रुका भय होता है ।। ६३ ।। मुख्यमें धन और पुत्रोंकी उत्पत्ति, भलाटमें विपुल ( बहुत ) लक्ष्मी, सोममें धर्मशीलता भुजंगमें बहुत वैर होता है ॥ ६४ ॥ आदित्यवारको सदैव कन्याओंका जन्म अदिति नक्षत्र में धनका संचय होता है पदपदमें किया श्रेष्ठद्वार श्रेष्ठ फलको देता है अर्थात काष्ठका प्रमाण पदप्रमाणका हो ॥ ६५ ॥ जो दो पदोंसे बनाया हो वह मिश्र फलको देता है, नौ ९ से भाग नित्यातिशो पिता शोके पापाख्ये पापसञ्चयः । उत्तरे रोगवधौ नित्यं नागे रिपुभयं महत् ॥ ६३ ॥ मुख्ये धनसुतोत्पत्तिर्भल्लाटे विपुलाः श्रियः । सोमे तु धर्मशीलत्वं भुजङ्गे बहुवैरता ||६४ || कन्यादोषाः सदादित्ये अदितौ धनसञ्चयः । पदे पदे कृतं श्रेष्ठ द्वारं सत्फलदायकम् ॥ ६५ ॥ पदद्वयं कृतं यच्च यद्वा मिश्रफलप्रदम् । सूत्रे नवहते भागे वसुभागं तथैव च ।। ६६ ।। प्रासादे कारयेद्विद्वानावासे न विचारणा । बहुद्वारेष्वलिंदेषु न द्वारनियमः स्मृतः ॥ ६७ ॥ सदैव सदने जीर्णोद्धारे साधारणेष्वपि । मूलद्वारं प्रकर्तव्यं वटे स्वस्तिकसन्निभम् ॥ ६८ ॥ यस्यातपत्रं प्रमथागणाकीर्ण प्रशस्यते । वीथिप्रमाणात्परतो द्वारं दक्षिण पश्चिमे ॥ ६९ ॥ न कार्य प्रथमाकीर्णे सुखिनं वा प्रकल्पयेत् । प्राकारे च प्रपायां च द्वारं प्रागुत्तरं न्यसेत् ॥ ७० ॥ दिये सूत्रमें वा वसुभागके प्रमाणसे ॥ ६६ ॥ प्रासादमें बुद्धिमान मनुष्य द्वारको बनवावे. आवास ( बसनेका घर) में कोई विचार नहीं है, अनेक द्वारोंके अलिन्दों (देहली ) में द्वारका नियम नहीं कहा है ।। ६७॥ जीर्णोद्वार सदनमें ( घरमें ) और साधारण घरोंमें मूलमें द्वार (छिद्र) घटमें स्वस्तिकके समान करना ॥ ६८ ॥ जिसका आतपत्र ( छत्र ) प्रमथगणोंसे आकीर्ण ( युक्त ) हो वह श्रेष्ठ होता है, वीथि (गली) प्रमाणसे पर जो दक्षिण पश्चिमका द्वार है वह ॥ ६९ ॥ प्रथम आकीर्ण न करना चाहिये अथवा उस द्वारको सुखदायी बनवावे