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अब द्वारके फलोंका वर्णन करते हैं-ईशानसे पूर्वमें और अग्निकोणमे दक्षिणमें और नैर्ऋत्यसे पश्चिममें और वायव्यसे उत्तर दिशामें क्रमसे चार दिशा स्थित रहती हैं ॥ ५६ ॥ पूर्व आदि दिशाके क्रम योगसे अग्रिका वास होय तो अग्निका भय होता है, पर्जन्य (मेघ) होय तो अनन्त धनकी दाता बहुत नारी होती हैं ॥ ५७ ॥ माहेन्द्र ( इन्द्रधनुष ) होय तो राजाकी दुम होती है, सूर्य होय तो अत्यन्त क्रोध होता है। सत्य होय तो अनृत होता है और अत्यंत क्रूर स्वभाव होता है ॥ ५८ ॥ अंतरिक्ष होय तो नित्य चोरोंका समागम होता है, दक्षिणमें होय तो अथ द्वारफलानि ॥ ईशानमादितः पूर्वे आग्नेयादक्षिणे स्थिताः । नैर्ऋत्यात्पश्विमे ज्ञेया वायव्यात्सौम्यदिक् स्थिताः ॥ ५६ ॥ पूर्वादिक्रमयोगेन हुताशेऽग्निभयं भवेत् । पर्जन्ये प्रचुरा नाय जायन्ते बहुवित्तदाः ॥ ५७ ॥ माहेन्द्रे नृपवात्सल्यं सूय्यैऽति क्रोधता भवेत् । सत्येऽनृतत्वं विज्ञेयं क्रूरत्वं च भृशं भवेत् ॥ ५८ ॥ अन्तरिक्षे च विज्ञेयो नित्यं चोरसमागमः । दक्षिणे स्यात् पुत्रनाशी वायव्ये प्रेष्यमेव च ॥ ५९ ॥ नीचत्वं वितथें ज्ञेयं गृहे तिष्ठति सन्ततिः । शूद्रकर्मा भवेत्पौष्ण नैर्ऋत्ये कर्तृनाशनम् ॥ ६० ॥ अधनं भगराजाख्ये मृगे पुत्रविनाशनम् । पश्चिमे पित्र्ये स्वल्पायुरधनं च महद्भयम् ॥ ६१ ॥ सुग्रीवे पुत्रनाशः स्यात् पुष्पदन्ते तु वर्द्धनम् । वरुणे को भोगित्वं नृपभङ्गस्तथाऽसुरे ॥ ६२ ॥
पुत्रका नाश, वायव्यमें होनेसे दासभाव होता है ॥ ५९ ॥ वितथ ( झूठ ) में नीचता जाननी और घरमें सन्तति टिकती है, रेवती नक्षत्र में द्वारको बनावे तो शूद्रकर्मकी करनेवाली संतान होती है, नैर्ऋत्यमें कर्ताका नाश होता है ॥ ६० ॥ भगराज (पूर्वाफा० ) में धनहीन होता है, मृगशिरा में पुत्रका नाश, मघामें पश्चिममुखका द्वार बनावे तो अल्प आयु धनका अभाव महान् भय होता है ॥ ६१ ॥ सुग्रीव में पुत्रका नाश, पुष्पदंतमें वृद्धि
भा. टी.
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