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________________ शास्त्रोक्त रीतिसे द्वारको बनवावे अपने इच्छासे नहीं ॥ ९३ ॥ प्रमाणसे न्यूनमें दुःख होता है. प्रमाणसे अधिकमें राजाका भय होता है, यदि द्वार आधा खण्डित होय तो अस्तके वेधको कहते हैं ॥ ९४ ॥ जो कपाटका छिद्र होय तो कपाटछिद्रवेधको कहते हैं, यदि यन्त्रसे विद्ध द्वार होय तो प्रासादमें धनका नाश होता है ॥९५ ॥ जिस द्वारके स्तंभमें शब्द होता हो उसके वंशका नाश होता है तिकोना शकटकी तुल्य सूप व्यजन इनके समान जो द्वार है ॥ ९६ ॥ मुरजाकार वर्तुल द्वारोंको और प्रमाणसे हीन द्वारोंको वर्जदे, त्रिकोणके द्वारमें - मानोने व्यसनं कुर्यादधिके नृपतेभयम् । अर्द्धखण्डं यदि द्वारं दलवेधं विनिर्दिशेत् ॥ ९४ ॥ कपाटच्छिवेधं च कपाटे वै क्षयो भवेत् । यत्र विद्धं यदा द्वारं प्रासादे च धनक्षयः ॥ ९५ ॥ स्तम्भ वा खते यस्य तस्य वंशक्षयो भवेत् । त्रिकोण शकटाकारं शूर्पव्यजनसन्निभम् ॥ ९६ ॥ मुरज वर्तुलं द्वारं मानहीनं च वर्जयेत् । त्रिकोणे पीड्यते नारी शकटे स्वामिनो भयम् ॥ ९७ ॥ शूर्पे धनविनाशः स्यादनुपि कलहो स्मृतः । धननाशस्तु मुरजे वर्तुले कन्यकोद्भवः ॥ ९८ ॥ मध्यहीनं तु यद् द्वारं नोनाशोक फलप्रदम् । स्तंभारे विन्यसेत्काष्ठं पाषाण नैव धारयेत् ॥ ९९ ॥ नृपालये देवगेहे पाषाणानां च कारयेत् । द्वारशाखा नृपाणां तु गृहे पाषाणनिर्मिता ॥ १०॥ नारीको पीडा होती है, शकटके द्वारमें स्वामीको भय होता है ॥ ९७ ॥ सूपके समान द्वारमें धनका नाश होता है, धनुषाकारमें कलह कहा है मुरजमें धनका नाश होता है वर्तुल (गोल) द्वारमें कन्याओंका जन्म होता है ॥९८ ॥ जो द्वार मध्यभागसे हीन होता है वह नाना शोकरूप फलोंको देता है, स्तंभके अग्रभागपर काष्ठ रक्खे पाषाणका धारण कदाचित न करे ॥ ९९ ॥ राजाके मन्दिर और देवताके घरमें पाषाणकिही द्वार और शाखाओंको बनवावे. राजाओंके घरमें द्वारशाखाभी पाषाणोंसेही बनीहुई होती है ॥ १० ॥
SR No.034186
Book TitleVishvakarmaprakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages204
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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