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प्रासादके विषे जो तीसरा प्रमाण है वह तुम्हारे प्रति कहा. तिसी प्रकार प्रासादके विष अन्य प्रमाणको भी सामान्यरीतिसे तुम सुनो ॥ ७५ ॥d जिसमें देवता टिकते हैं उस प्रासादके भेदके तीन विभाग करले. प्रमाणसे रथको बनवाकर उसके वामभागमें चलावे ॥ ७६ ॥ प्रासा दके चारों तरफ एकपादकी नेमि वनवावै गर्भको दूना करके जो प्रमाण हो वही नेमिका मान होता है ॥ ७७ ॥ यही भित्तियोंकी ऊँचाई। होती है. उससे दूना शिखर होता है, उसके पांचवें भागका पूर्वको है ग्रीवा जिसकी ऐसा निःश्वास कहाता है ॥ ७८ ॥ प्राकारके शिखरको प्रासादे यस्तृतीयस्तु मया तुभ्यं निवेदितः । सामान्यमपरं तद्वत्प्रासादं शृणुत द्विजाः॥७९॥ त्रिभेदं कारयेत्क्षेत्र यत्र तिष्ठन्ति देवताः । रथं कृत्वा तु मानेन बाह्यभागविनिर्गतम् ॥ ७६ ॥ नेमी पादेन विस्तीर्णा प्रासादस्य समन्ततः । गर्भ तु द्विगुणं कुर्याने मिमानं भवेदिह ॥ ७७॥ स एव भित्तीनामुत्सेधो द्विगुणः शिखरो मतः । प्राग्ग्रीवं पञ्चभागेन निःश्वासस्तस्य चोच्यते ॥७८॥ कारयेच्छिखरं तद्वत्प्राकारस्य विधानतः । प्राग्नीवं तस्य मानेन निष्कांशेन विशेषतः ॥ ७९ ॥ कुर्याद्वा पञ्चभागेन प्राग्ग्रीवं कर्णमूलतः । कारयेत्कनकं तत्र गर्भान्ते हारमूलतः ॥ ८॥ एवं तु त्रिविधं कुर्याज्येष्ठमध्यकनीयसम् । लिंगमानानुभेदेन रूपभेदेन वा पुनः॥ ८१ ॥ एते सामान्यतः प्रोक्ता नामतः शृणुताधुना ॥ मेरुमन्दरकैलासकुम्भसिंहमृगास्तथा ॥ ८२ ॥ भी विधिसे बनवावे. उनके विशेषकर निष्क अंशके प्रमाणसे शिखरकी ग्रीवाको पूर्वदिशाको रक्खै ॥ ७९ ॥ अथवा कर्णमूलके पांचवें भागसे पर्वको जिसकी ग्रीवा हो ऐसा शिखर बनवावे. उसमें गर्भके अन्तमें हारके मूलसे लेकर कनक बनवावै ॥ ८॥ इस प्रकार ज्येष्ठ मध्यम और
शिखर बनवाव. उसम गर्भक अन्तम हारक मूलसे लेकर कनक बनवाच ॥९॥ इस प्रकार कनिष्ठके भेदसे लिंगमान वा रूपभेदसे तीन प्रकारके शिखरको बनवावै ॥८१॥ ये शिखर सामान्यसे कहे, अब शिखरोंके नामोंको तुम सुनो