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वि. प्र. ॥ ५६ ॥
मंजरीभी प्रमाणसे डेढगुणी शुकनासिकाको बनवावे और उसके ऊपर उससे आधा वैदीबन्ध होता है ॥ ६७ ॥ वेदीके ऊपर जो शेष कण्ठ है वह आमलकसार कढ़ाता है इस प्रकार विभाग करके बुद्धिमान मनुष्य शोभन प्रासादको बनवावे ॥ ६८ ॥ इसके अनन्तर औरभी प्रासा - दका लक्षण हम कहते हैं-हे द्विजो ! गभौके प्रमाणसे उस प्रासादके प्रमाण तुम सुनो ॥ ६९ ॥ नौभागमें प्रासादके गर्भको अर्थात् मध्यकी संपूर्ण भूमिको विभाग करके मंदिरके सुंदर ८ आठ पादोंकी चारों तरफ पीठिकाकी कल्पना करे ॥ ७० ॥ इसी मानसे मित्तियोंका विस्तार मर्या सार्द्धमानेन शुकनासं प्रकल्पयेत् । ऊर्द्ध तथार्द्धभागेन वेदीबन्धो भवेदिह ॥ ६७ ॥ वेद्याश्वोपरि यच्छेषं कण्ठमामल सारकम् । एवं विभज्य प्रासादं शोभनं कारयेद्बुधः ॥ ६८ ॥ अथान्यच्च प्रवक्ष्यामि प्रासादस्येह लक्षणम् । गर्भमानेन प्रासाद प्रमाण शृणुत द्विजाः ॥ ६९ ॥ विभज्य नववा गर्भ मध्ये लिङ्गस्य पीठिका । पादाष्टकं तु रुचिरं पार्श्वतः परिकल्पयेत् ॥ ७० ॥ मानेनानेन विस्तारो भित्तीनां तु विधीयते । पादे पञ्चगुणं कृत्वा भित्तीनामुच्छ्रयो भवेत् ॥ ७१ ॥ स एव शिखरस्यापि द्विगुणः स्यात्समुच्छ्रयः । चतुर्धा तु शिरो भज्य अर्द्ध भागद्वयस्य वा ॥७२॥ शुकनासं प्रकुर्वीत तृतीये वेदिका मता । कण्ठमामलसारं च चतुर्थे परिकल्पयेत् ॥ ७३ ॥ कपोलयोस्तु संहारो द्विगुणोऽस्य विधीयते । शोभनैर्वप्रवल्लीभिरण्डकैश्च विभूषितः ॥ ७४ ॥ कहा है. एक पादकी पाँच गुणा करके भित्तियोंकी ऊंचाई होती है ॥ ७१ ॥ वही दूनी शिरकी ऊँचाई होती है. शिखरकी चौथाई अथवा दो भागका जो अर्ध भाग उसके प्रमाणकी ॥ ७२ ॥ शुकनासिकाको बनवावे. अमलसार नामका जो कण्ठ है वह चौथा भागका बनवावे ॥ ७३ ॥ उसके कपोलोंका संहार (प्रमाण) दूना कहा है. वह शोभन वप्रवल्ली और अण्डकोंसे विभूषित होता है ॥ ७४ ॥
भा. टी.
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