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वि.प्र. ॥ ५२ ॥
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रत्नोंसे जडित मनोहर ( रमणीय ) मन्दिरके बनानेसे अनन्तफल होता है, कनिष्ठ मध्यम और श्रेष्ठ विष्णुके मन्दिर बनानेसे ॥ ९ ॥ स्वर्गलोक विष्णुलोक और मोक्षको प्राप्त होता है और बाल्य अवस्थामें पांसु (धूलि ) से खेलते हुए बालक जो वासुदेव हरिके भवनको ॥ १० ॥ करते हैं वे मी विष्णुलोकमें जाते हैं, जो भूमि घरके बनानेमें श्रेष्ठ है वही प्रासादकी भूमिमें भी श्रेष्ठ है ॥ ११ ॥ जो विधि घरके बनानेमें और शिलाके स्थापन करने में है वही प्रासाद आदिमेंभी जाननी चार ४ शिला ॥ १२ ॥ नन्दा भद्रा जया पूर्णा नामकी आग्नेय आदि दिशा अनन्तं फलमाप्नोति रत्नचित्रे मनोहरे । कनिष्ठं मध्यमं श्रेष्ठं कारयित्वा हरेर्गृहम् ॥ ९ ॥ स्वर्ग च वैष्णवं लोकं मोक्षं च लभते क्रमात् । बाल्ये च क्रीडमाना ये पांसुभिर्भवनं हरेः ॥ १० ॥ वासुदेवस्य कुर्वन्ति तेऽपि तल्लोकगामिनः । या भूमिः शस्यते गेहे सा प्रासादविधौ तथा॥ ११ ॥ यो विधिगृहनिर्माणे शिलान्यासस्य कर्मणि । प्रासादादिषु संज्ञेयाश्चतस्रस्तु शिलास्तथा ॥ १२॥ नन्दा भद्रा जया पूर्णा आग्नेयादिषु विन्यसेत् । चतुष्षष्टिपदं वास्तुं प्रासादादिषु विन्यसेत् ॥ १३ ॥ ब्रह्मा चतुष्पदो ह्यत्र शेषाः स्वस्वपदे स्थिताः । वास्तुपूजाविधिश्वात्र गृहस्थापनकर्मवत् ॥ १४ ॥ सम्पूज्य वास्तुं विधिवच्छिलान्यासं ततश्वरेत् । आदावेव समासेन शिलालक्षणमुत्तमम् ॥ १५॥ शिलान्यासविधानन्तु प्रोच्यते तदनन्तरम् । शिला वाऽपीष्टका वापि चतस्रो लक्षणान्विताः॥१६॥ ओंमें प्रासादमें भी स्थापन करें. प्रासाद आदिमें वास्तु चतुःषष्टि ( ६४ ) पदका होता है ॥ १३ ॥ चतुःषष्टिपद वास्तुमें ब्रह्मा चतुष्पद होता है और शेष देवता अपने अपने पदमें स्थित होते हैं. और इसमें वास्तुपूजाकी विधि गृहस्थापन कर्मके तुल्य होती है ॥ १४ ॥ विधिसे वास्तुका भलीप्रकार पूजन करके फिर शिलाका स्थापन करें. प्रथम संक्षेपसे शिलाका उत्तम लक्षण देखे ॥ १५ ॥ उसके अनन्तर शिला
भा. टी.
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