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इसके अनन्तर प्रासादोंकी विधिको कहता हूं— रुद्रदेवता और विष्णु देवता और देवताओं में उत्तम ब्रह्मा आदि || १ || इनका शुभस्थान में स्थापन करना योग्य है अन्यथा ये भयके दाता होते हैं, गर्तआदिका चिह्न जिसमें हो और जिसका गन्ध और स्वाद श्रेष्ठ हो वह पृथिवी ॥ २ ॥ और जिसका वर्ण श्रेष्ठ हो वह पृथिवी सब कामनाओंकी दाता होती है. अपने पितामहसे पूर्वके जी आठ कुल हैं ॥ ३ ॥ अपने सहित उन सबको विष्णुका मन्दिर बनवाने वाला तारता है और जो हमारे कुलमें कोई विष्णुका भक्त हो ॥ ४ ॥ ऐसा और हम विष्णुका मन्दिर बनवा अथातः संप्रवक्ष्यामि प्रासादानां विधानकम् । देवो रुद्रस्तथा विष्णुर्ब्रह्माद्यास्सुरसत्तमाः ॥ १ ॥ प्रतिष्ठाप्याः शुभे स्थाने अन्यथा ते भयावहाः । गर्तादिलक्षणा धात्री गन्धस्वादेन या भवेत् ॥ २ ॥ वर्णेन च सुरश्रेष्ठा सा मही सर्वकामदा । पितामहस्य पुरतः कुलान्यष्टौ तु यानि वै ॥ ३ ॥ तारयेदात्मना सार्द्धं विष्णोर्मन्दिरकारकः । अपि नः सत्कुले कश्चिद्विष्णुभक्तो भविष्यति ॥ ४ ॥ ये ध्यायन्ति सदा भक्त या करिष्यामो हरेर्गृहम् । तेषां विलीयते पापं पूर्वजन्मशतोद्भवम् ॥ ५ ॥ सुरवेश्मनि यावन्तो द्विजेन्द्राः परमाणवः । तावद्वर्षसहस्राणि स्वर्गलोके महीयते ॥ ६ ॥ प्रासादे मृन्मये पुण्यं मयैतत्कथितं पुरा । तस्माद्दशगुणं पुण्यं कृते शैलमये भवेत् ॥ ७ ॥ ततो दशगुणं लौहे ताम्रे शतगुणं ततः । सहस्रगुणितं रौप्ये तस्माद्रौक्मे सहस्रभम् ॥ ८ ॥
वेंगे ऐसा जो सदैव भक्तिसे ध्यान करते हैं उनके भी पूर्व लोकका १०० सौ जन्मोंका किया पाप नष्ट होता है ॥ ५ ॥ भो द्विजेन्द्रो ! देवताके मन्दिरमें जितने परमाणु होते हैं उतने सहस्रवर्षपर्यन्त कर्ता स्वर्गलोकमें वसता है ॥ ६ ॥ जो यह मैंने पुण्य कहा वह मिट्टीसे बनाये हुए मन्दिरमें होता है और उससे दश गुणा पुण्य पत्थरसे बनाये हुएमें होता है ॥ ७ उससे भी दशगुणा लोहे से बनायेमें और उससे भी सौ १०० गुणा तांबेके बनाये हुए में और उससे भी हजार गुणा चांदीके और उससे भी हजार गुणा सुवर्णके मन्दिरमें होता है ॥ ८ ॥