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भा. टी.
१. A
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देवगण इष्ट की सिद्धि और आगमनके लिये जावो ॥ २५५ ॥ फिर पूर्वाभिमुख होकर यजमान पूजाकी सामग्री आचार्यको निवेदन करे। और लिसी प्रकार अपने धनके अनुसार ब्रह्माको दक्षिणा दे ॥ २५६ ॥ उत्तराभिमुख बेठेहुए ब्रह्माको यह कहे-क्षमा करो सुवर्णसे युक्त और दो वस्त्रोंसे युक्त सवत्सा गौको ॥ २५७ ॥ और यज्ञके अन्तमें धुलेहुए वस्त्रोंको आचार्यके अर्थ निवेदन कर फिर ज्योतिषी और स्थपति और वैष्णव इनका सन्तोष करिके ॥ २५८ ॥ उनको भी दक्षिणा दे. पृतमें अपने मुखकी छायाको देखे फिर रक्षाबन्धन मन्त्रपाठ और व्यायुष ततस्तु प्राङ्मुखो भूत्वा आचार्याय निवेदयेत । दक्षिणां ब्रह्मणे तद्वद्यथावित्तानुसारतः।।२५६॥ उदङ्मुखाय च ततः क्षमस्वेति पुनः पुनः । गां सवत्सां स्वर्णयुतां तथा वासोयुगान्विताम ॥२५७ ॥ यज्ञान्ते आप्लुतान् वस्त्रानाचार्याय निवेदयेत् । दैवज्ञश्च ततस्तोष्यः स्थपतीन् वैष्णवानपि ॥ २५८ ॥ दक्षिणां च तयोर्दद्याद् घृतच्छायां विलोकयेत् । रक्षाबन्धो मन्त्रपाठख्यायुपं च समाचरेत् ॥ २५९ ॥ ऋत्विग्भ्यो दक्षिणां दद्याच्छिष्टेभ्यश्च स्वशक्तितः । दीनान्धकृपणेभ्यश्च दद्याद्वित्तानुसारतः ॥ २६० ॥ शिल्पिवर्गास्तु संतोष्य दानमानैस्तथैव च ॥ २६ ॥ सम्प्राप्नोति नरो लक्ष्मी पुत्रपौवधनान्विताम्॥ २६२॥ इति वास्तुशास्त्रे शिलान्यासो नाम पञ्चमोऽध्यायः॥५॥ करे अर्थात वसे भस्मको लगावे ॥ २५९ ॥ अपनी शक्तिके अनुसार ऋत्विज और शिष्टोंको दक्षिणा दे और अपने धनके अनुसार दीन अन्ध और कृपणोंकोभी कुछ दे ॥ २६०॥ दान मानसे शिल्पियोंका जो वर्ग है उनके भी सन्तोषको करके ॥ २६१ ॥ मनुष्य पुत्र पौत्रोंसे युक्त लक्ष्मीको प्राप्त होता है ॥ २६२ ।। इति पं० मिहिरचन्द्रकृतभाषाविवृतिसाहिते वास्तुशास्त्रे शिलान्यासो नाम पचमोऽध्यायः ॥ ५ ॥