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विलासे ॥ ९६ ॥ य एवं संकोए ए जुए तब पुण तुम्लत्तं । जं तं मञ्जत्यत्तं विरका सबतुझतं ॥ ए७ ॥ के य पुरिसेइच्चाइ वयणचच्चिय ववहियं एयं । इय देखणा विसुद्धा इयरा मित्तगमलाई ॥ ए८ ॥ श्राइज शिष्ठां कयाइ चर| एस्स कहवि श्रारं । पाऊण विश्ररुणाए सोर्हेति मुणी विमलसा ॥ एए ॥ श्राउट्टिश्रा उविच्चा दप्पो पुण होइ | वग्गणाई । विगहाइ पमा कप्पो पुण कारणे करणं ॥ १०० ॥ सचालू श्रपमत्तो हविज किरियासु जेण तेषेव । किरियाणं साफलं जं जणियं धम्मरयांमि ॥ १०१ ॥ पवऊं विज पि व साहंतो होइ जो पमाइलो । तस्स पण सिनइ एसा करे गरु च अवयारं ॥ १०२ ॥ परिखेदलाई चिद्या बक्कायविघाणी पमत्तस्स । जाि सुमि तम्हा अपमाई | सुविहि दुा ॥ १०३ ॥ रकइ वएसु खखिधं उवउत्तो होइ समिझगुत्तीसु । बजाइ श्रवहेलं पमायचरि सुधिर| चित्तो ॥ १०४ ॥ कामि अहिां किरियंतर विरहि जहा सुसं । श्रायर सच्चकिरियं अपमाई जो इह चरिती | ॥ १०५ ॥ जह शिविग्धं सिग्धं गमणं मग्गन्नुषो एगरलाने । देऊ तह सिवलाने णिचं श्रपमायपरिवुड्डी ॥ १०६ ॥ कम्मां अपमाया अणुबंधावण्यणं च होकाहि । तत्तो छाकरणयिमो दुरकरकयकारणं होइ ॥ १०७ ॥ परिबंधावि अ कंटगजरमोहसं निजाउं । हवइ अणुबंध विगमा पयाणजंगो ए दीहयरो ॥ १०८ ॥ खार्जवसभिगनावे दढजत्तकयं सुहं श्राणं । परिवािं पि य हुआा पुणो वि तनावबुद्धिकरं ॥ १०७ ॥ श्रमहागिरिचरिश्रं जावंतो माणसंमि उजामइ । श्रणिगू हिय यथामं श्रपमायस्सेस कसवट्टो ॥ ११० ॥ संजमजोगेसु सया जे पुण संतविरिया विसीति । कह ते विसुचरणा बाहिरकरणाला हुंति ॥ १११ ॥ श्रणुबंधजुनं कुसलो शिवोढुं श्रप्पणी पमायं । श्रयगुरुसँगपञ्चयसु