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अर्थ :- जो तुम्हारे हितकारी उपदेश को सहन नहीं करते हैं, उन पर तू क्रोध मत कर । व्यर्थ किसी पर क्रोध करके तू अपने स्वाभाविक सुख का लोप क्यों करता है ? ॥२२४॥ सूत्रमपास्य जड़ा भासन्ते, केचन मतमुत्सूत्रं रे। किं कुर्मस्ते परिहतपयसो, यदि पीयन्ते मूत्रं रे ।अनुभव॥ २२५॥
अर्थ :- कई जड़ बुद्धि वाले शास्त्र-वचन का त्यागकर मिथ्या (शास्त्रविरुद्ध) भाषण करते हैं, वे मूढ जीव निर्मल जल का त्यागकर मूत्र का पान करते हैं, तो इसमें हम क्या करें? ॥२२५।। पश्यसि किं न मनःपरिणामं, निजनिजगत्यनुसारं रे। येन जनेन यथा भवितव्यं, तद्भवता दुर्वारं रे ।अनुभव०॥२२६॥
अर्थ :- अपनी-अपनी गति के अनुसार जीवों के (शुभाशुभ) परिणाम होते हैं, अतः हे आत्मन् ! तू क्यों नहीं समझता है ? जिस आत्मा की जो गति होनेवाली है, उसे तू कैसे रोक सकेगा? उसे तू नहीं मिटा सकता है ॥२२६॥ रमय हृदा हृदयंगमसमतां, संवृणु मायाजालं रे । वृथा वहसि पुद्गल-परवशता
मायुः परिमितकालं रे । अनुभव० ॥ २२७ ॥ अर्थ :- अपने दिल में आनन्ददायी समता को स्थिर कर और मायाजाल का त्याग कर दे, तू व्यर्थ ही पुद्गल की पराधीनता भोग रहा है, तेरा आयुष्य तो मर्यादित है ॥२२७॥ शांत-सुधारस