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अर्थ :- अतः सभी सन्त पुरुष उदासीनता रूपी अमृत का बारम्बार पान करें और आनन्द की उछलती तरंगों के द्वारा प्राणिमुक्ति के सुख को प्राप्त करें ॥२२१॥
॥१६ भावनाष्टकम् ॥ अनुभव विनय ! सदा सुखमनुभव, औदासीन्यमुदारं रे। कुशलसमागममागमसारं,
कामित-फलमन्दारं रे । अनभव ॥ २२२ ॥ अर्थ :- हे विनय ! तू सदैव उदासीनता रूपी उदार सुख का अनुभव कर । क्योंकि यह आगम-सिद्धान्त के साररूप मोक्ष-पद की प्राप्ति कराने वाला है तथा इष्टफल को देने में कल्पवृक्ष के समान है ॥२२२॥ परिहर परचिन्तापरिवारं, चिन्तय निजमविकारं रे । वदति कोऽपि चिनोति करीरं,
चिनुतेऽन्यः सहकारं रे । अनुभवः ॥२२३ ॥ अर्थ :- पर-पुद्गल की चिन्ता का तू त्याग कर दे और आत्मा के अविकारी आत्मस्वरूप का तू चिन्तन कर । कोई मुख से बड़ी-बड़ी बातें ही करते हैं, किन्तु वे केरड़ा ही पाते हैं, जबकि परिश्रम करने वाले आम्र की प्राप्ति करते हैं ॥२२३॥ योपि न सहते हितमुपदेशं, तदुपरि मा कुरु कोपं रे । निष्फलया किं परजनतप्त्या,
कुरुषे निजसुखलोपं रे । अनुभव० ॥ २२४ ॥ शांत-सुधारस