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जानने वाले बुद्धिमान् मनुष्य इनमें किनकी प्रशंसा करे और किनके ऊपर रोष करे ? ॥२१८॥
मिथ्या शंसन् वीरतीर्थेश्वरेण, रोर्बु शेके न स्वशिष्यो जमालिः । अन्यः को वा रोत्स्यते केन पापात्, तस्मादौदासीन्यमेवात्मनीनम् ॥ २१९ ॥
अर्थ :- स्वयं तीर्थंकर परमात्मा महावीर स्वामी भी अपने शिष्य जमाली को विरुद्ध प्ररूपणा करते हुए रोक नहीं सके, तो फिर कौन किसको पाप से रोक सकता है ? अतः उदासीनता ही आत्महितकर है ॥२१९॥ अर्हन्तोऽपि प्राज्यशक्तिस्पृशः किं, धर्मोद्योगं कारयेयुः प्रसह्य । दधुः शुद्धं किन्तु धर्मोपदेशं, यत्कुर्वाणा दुस्तरं निस्तरन्ति॥२२०॥
अर्थ :- तीर्थंकर परमात्मा असाधारण शक्ति सम्पन्न होते हैं, फिर भी क्या वे बलात्कार से किसी के पास धर्म कराते हैं ? अर्थात् नहीं कराते हैं । किंतु वे शुद्ध धर्म का उपदेश अवश्य देते हैं, जिसका पालनकर भव्य प्राणी भवसागर तैर जाते हैं ॥२२०॥
तस्मादौदासीन्यपीयूषसारं, वारं वारं हन्त सन्तो लिहन्तु । आनन्दानामुत्तरङ्गत्तरङ्गै- वद्भिर्यद् भुज्यते मुक्तिसौख्यम्। ॥२२१॥
शांत-सुधारस
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