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१६. माध्यस्थ्य भावना
श्रान्ता यस्मिन् विश्रमं संश्रयन्ते, रुग्णाः प्रीतिं यत्समासाद्य सद्यः । लभ्यं राग-द्वेषविद्वेषिरोधादौदासीन्यं सर्वदा तत् प्रियं नः ॥ २१७॥ ___अर्थ :- जिस उदासीनता को प्राप्तकर अमितजन विश्राम प्राप्त करते हैं और रोगीजन प्रीति प्राप्त करते हैं, राग-द्वेष रूपी शत्रु का रोध करने से उसे (उदासीनता को) प्राप्त कर सकते हैं, ऐसा औदासीन्य हमें सर्वदा प्रिय है ॥२१७।।
लोके लोका भिन्न-भिन्नस्वरूपाः, भिन्नभिन्नैः कर्मभिर्मर्मभिद्भिः। रम्यारम्यैश्चेष्टितैः कस्य कस्य, तद्विद्वद्भिः स्तूयते रुष्यते वा ॥ २१८ ॥
अर्थ :- मर्मस्थल को भेदने वाले भिन्न-भिन्न प्रकार के कर्मों को लेकर इस लोक में प्राणी भिन्न-भिन्न स्वरूप/आकार में दिखाई देते हैं। उनके सुन्दर और असुन्दर आचरणों को
शांत-सुधारस
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