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अर्थ :- कुमति रूपी अन्धकार से जिसके नेत्र मीलित हो गए हैं, ऐसे कुगुरु से मार्ग क्यों पूछते हो ? जल से परिपूर्ण भाजन में दही की बुद्धि से रवैया क्यों करते हो ? || २१२ ॥ अनिरुद्धं मन एव जनानां, जनयति विविधातङ्कम् । सपदि सुखानि तदेव विधत्ते,
आत्माराममशङ्कं रे । सुजना० ॥ २१३ ॥
अर्थ :- अंकुशरहित मन मिथ्यात्व आदि विविध प्रकार की उपाधियाँ पैदा करता है और वहीं निग्रहित मन निःशंक रूप से सुख भी प्रदान करता है || २१३ ||
परिहरतास्त्रवविकथागारव - मदनमनादि - वयस्यम् । क्रियतां संवर - साप्तपदीनं,
ध्रुवमिदमेव रहस्यं रे । सुजना० ॥ २१४ ॥
अर्थ :- अनादिकाल से सहचारी बने आस्रव, विकथा, गारव तथा मदन का त्याग करो और संवर रूप सच्चे मित्र का आदर करो, यही सच्चा रहस्य है || २१४ ||
सह्यत इह किं भवकान्तारे, गद- निकुरम्ब-मपारम् । अनुसरता हितजगदुपकारं, जिनपतिमगदङ्कारं रे सुजना० ॥ २१५ ॥
अर्थ : - इस भवाटवी में अपार द्रव्य और भाव रोगों को तुम क्यों सहन करते हो ? समस्त जगत् पर उपकार करने में दृढ़ प्रतिज्ञावन्त जिनेश्वरदेव रूप भाव वैद्य का अनुसरण करो,
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शांत-सुधारस