________________
॥ पञ्चदश भावनाष्टकम् ॥
सुजना ! भजत मुदा भगवन्तं, सुजना ! भजत मुदा भगवन्तं । शरणागतजनमिह निष्कारण
करुणावन्तमवन्तं रे सुजना० ॥ २०९ ॥
अर्थ :- हे सज्जनो ! शरणागत प्राणियों पर निष्कारण अप्रतिम करुणा करने वाले भगवन्त को आप प्रेम से भजो ॥ २०९ ॥ क्षणमुपधाय मनः स्थिरतायां, पिबत जिनागमसारम् । कापथघटनाविकृतविचारं,
त्यजतकृतान्तमसारं रे ॥ सुजना० ॥ २१० ॥ अर्थ :- क्षण भर मन को स्थिर करके श्री जिनेश्वरदेव के आगमरूप अमृत का पान करो और उन्मार्ग की रचना से विषम विचार वाले असार और मिथ्याशास्त्रों का त्याग करो ॥२१०॥ परिहरणीयो गुरुरविवेकी, भ्रमयति यो मतिमन्दम् । सुगुरुवचः सकृदपि परिपीतं, प्रथयति परमानन्दं रे । सुजना० । २११ ।
अर्थ :- जो मतिमन्द / मुग्धजनों को संसारचक्र में परिभ्रमण कराते हैं ऐसे अविवेकी गुरु का त्याग करना चाहिए और सद्गुरु का वचनामृत एक बार भी पीया है तो वह परम आनन्द को बढ़ाता है || २११ ॥
कुमततमोभरमीलितनयनं, किमु पृच्छत पन्थानम् । दधिबुद्ध्या नर जलमन्थानं,
शांत-सुधारस
किमु निदधत मन्थानं रे । सुजना० ॥ २१२ ॥
८३