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निरन्तर जला रहा है, उसी स्थान में तू दीर्धकाल से राग करता है॥४२॥ दर्शयन् किमपि सुखवैभवं, संहरंस्तदथ सहसैव रे । विप्रलम्भयति शिशुमिव जनं, कालबटुकोऽयमत्रैव रे ॥
कलय० ॥४३॥ अर्थ :- यह काल रुपी बटुक जीवात्मा को थोड़ा सा सुख-वैभव दिखाकर, पुनः उसे खींच लेता है, इस प्रकार यह काल जीवात्मा को बालक की भांति ललचाता रहता है ॥४३।। सकल-संसारभयभेदकं, जिनवचो मनसि निबधान रे। विनय परिणमय निःश्रेयसं, विहित-शमरस-सुधापान रे ॥
कलयः ॥४४॥ अर्थ :- हे विनय ! संसार के समस्त भयों को भेद देने वाले जिनवचन को हृदय में धारण करो । शान्त रस का अमृतपान कर अपने आपको निःश्रेयस् में बदल दो ॥४४॥
शांत-सुधारस
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