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अर्थ :- तू कभी उन्नति के अभिमान की कल्पना करता है तो कभी हीनता के विचारों से दीन बन जाता है। कर्म की पराधीनता से हर भव में नये-नये रुपों को धारण करता है ॥३९॥ जातु शैशवदशापरवशो, जातु तारुण्यमदमत्त रे । जातु दुर्जयजराजर्जरो, जातु पितृपतिकरायत्त रे॥कलयः॥४०॥
अर्थ :- जब तू शिशु अवस्था में था, तब अत्यन्त परवश था, जब तरुण अवस्था में आया, तब मद से उन्मत्त बन गया और जब वृद्धावस्था में आया तब जरा से अत्यन्त जर्जरित बन गया और अन्त में यमदेव को पराधीन बन गया ॥४०॥ व्रजति तनयोऽपि ननु जनकतां, तनयतां व्रजति पुनरेष रे । भावयन्विकृतिमिति भवगते-स्त्यज तमो नृभवशुभशेष रे ॥
कलय० ॥ ४१ ॥ अर्थ :- इस संसार में पुत्र मरकर पिता बन जाता है और वह पिता मरकर पुनः पुत्र बन जाता है । इस प्रकार इस संसारगति की विकृति (विचित्रता) का विचार करो और इसका त्याग कर दो, अभी भी तुम्हारे इस मनुष्य-जीवन का शुभ भाग बाकी है ॥४१॥ यत्र दुःखार्त्तिगददवलवै-रनुदिनं दासे जीव रे। हन्त तत्रैव रज्यसि चिरं, मोहमदिरामदक्षीव रे ॥ कलयः॥४२॥
अर्थ :- मोह की मदिरा के पान से नष्टबुद्धि वाले हे जीवात्मा ! खेद है कि जहाँ दुःख की पीड़ा के दावानल से तू शांत-सुधारस